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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

बारहवाँ बयान


यद्यपि भूतनाथ को तरद्दुदों से छुट्टी मिल चुकी थी, यद्यपि उसका कसूर माफ हो चुका था, और वह महाराज के खास ऐयारों में मिला लिया गया था, मगर इस जगह उस आदमी को जिसने नकाबपोशों के मकान में तस्वीर पेश करके, उस पर दावा करना चाहा था, देख कर उसकी अवस्था फिर बिगड़ गयी और साथ ही इसके अपनी स्त्री को भी वहाँ काम करते हुए देखकर उसे क्रोध चढ़ आया।

जब वह आदमी पानी का घड़ा और झारी रखकर लौट चला तब, इन्द्रदेव ने उसे पुकारकर कहा, ‘‘अर्जुन, जरा वह तस्वीर भी तो ले जाओ, जिसे बार-बार तुम दिखाया करते हो और जो हमारे दोस्त भूतनाथ को डराने और धमकाने के लिए एक औजार की तरह पर तुम्हारे पास रक्खी हुई है।’’

इस नाम ने भूतनाथ के कलेजे को और भी हिला दिया। वास्तव में उस आदमी का यही नाम था और इस खयाल ने तो उसे और भी बदहवास कर दिया कि अब वह तस्वीर लेकर आयेगा।

इस समय सबकोई बाग में टहल रहे थे और इसीलिए एक-दूसरे से कुछ दूर हो रहे थे। भूतनाथ बढ़कर देवीसिंह के पास चला गया और उसका हाथ पकड़कर धीरे-से बोला, ‘‘देखा इन्द्रदेव का रंग-ढंग?’’

देवी : (धीरे-से) मैं सबकुछ देख और समझ रहा हूँ, मगर तुम घबड़ाओ नहीं।

भूतनाथ : मालूम होता है कि इन्द्रदेव का दिल अभी तक मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ।

देवी : शायद ऐसा ही हो, मगर इन्द्रदेव से ऐसी उम्मीद हो नहीं सकती, मेरा दिल इसे कुबूल नहीं करता। मगर भूतनाथ, तुम भी अजीब सिड़ी हो।

भूतनाथ : सो क्या?

देवी : यही कि नकाबपोशों का पीछा करके तुमने कैसे-कैसे तमाशे देखे, और तुम्हें विश्वास भी हो गया कि इन नकाबपोशों से तुम्हारा कोई भेद छिपा नहीं है, फिर अन्त में यह भी मालूम हो गया कि उन नकाबपोशों के सरदार कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह थे। अस्तु, इन दोनों से भी अब कोई बात छिपी नहीं रही।

भूतनाथ : बेशक ऐसा ही है।

देवी : तो फिर अब क्यों तुम्हारा दम घुटा जाता है? अब तुम्हें किसका डर रह गया?

भूतनाथ : कहते तो ठीक हो, खैर, कोई चिन्ता नहीं जो कुछ होगा, देखा जायगा।

देवी: बल्कि तुम्हें यह जानने की कोशिश करना चाहिए कि दोनों कुमारों को तुम्हारे भेदों का पता क्योंकर लगा। ताज्जुब नहीं कि अब वे सब बातें खुला चाहती हों।

भूतनाथ : शायद ऐसा ही हो, मगर मेरी स्त्री के बारे में तुम क्या खयाल करते हो?

देवी : इस बारे में मेरा-तुम्हारा मामला एक-सा हो रहा है। अस्तु, इस विषय में मैं कुछ भी नहीं कह सकता। वह देखो इन्द्रदेव, तेजसिंह के पास चला गया है और तुम्हारी स्त्री की तरफ इशारा करके कुछ कह रहा है। तेजसिंह अलग हों तो मैं उनसे कुछ पूछूँ। यहाँ की छटा ने तो लोगों का दिल ऐसा लुभा लिया है कि सभों ने एक-दूसरे का साथ ही छोड़ दिया। (चौंककर) लो देखो तुम्हारा लड़का नानक भी तो आ पहुँचा, उसके हाथ में भी कोई तस्वीर मालूम पड़ती है, अर्जुन भी उसी के साथ है।

भूतनाथ : (ताज्जुब से) आश्चर्य की बात है! नानक और अर्जुन का साथ कैसे हुआ? और नानक यहाँ आया ही क्यों? क्या अपनी माँ के साथ आया है? क्या कपूत छोकरे ने भी मेरी तरफ से आँखें फेर ली हैं? ओफ यह तिलिस्मी जमीन तो मेरे लिए भयानक सिद्ध हो रही है, अच्छा-खासा तिलिस्म मुझे दिखायी दे रहा है। जिन पर मुझे विश्वास था, जिनका मुझे भरोसा था, जो मेरी इज्जत करते थे, यहाँ उन्हीं को मैं अपना विपक्षी पाता हूँ और वे मुझसे बात तक करना पसन्द नहीं करते।

नानक और अर्जुन को भूतनाथ और देवीसिंह ताज्जुब के साथ देख रहे थे। नानक ने भी भूतनाथ को देखा, मगर दूर से ही प्रणाम करके रह गया, पास न आया और अर्जुन को लिए सीधे इन्द्रदेव की तरफ चला गया, जो तेजसिंह से बातें कर रहे थे। इस समय आज्ञानुसार अर्जुन अपने हाथ में तस्वीर लिए हुए था, और नानक के हाथ में भी एक तस्वीर थी।

नानक और अर्जुन को अपने पास आते देख इन्द्रदेव ने हाथ के इशारे से उन्हें दूर ही खड़े रहने के लिए कहा और उन्होंने भी ऐसा ही किया। कुछ देर तक और भी तेजसिंह के साथ इन्द्रदेव बातें करता रहा, इसके बाद इशारे से अर्जुन और नानक को अपने पास बुलाया और जब वे दोनों पास आ गये तो कुछ कह-सुनकर बिदा किया। भूतनाथ यह सब तमाशा देखकर ताज्जुब कर रहा था। अर्जुन और नानक को बिदा करने के बाद तेजसिंह को साथ लिये हुए इन्द्रदेव, महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गया जो एक सुन्दर चट्टान पर खड़े-खड़े ढालवीं जमीन और पहाड़ी पर से नीचे की तरफ गिरते हुए सुन्दर झरने की शोभा देख रहे थे और बीरेन्द्रसिंह भी उन्हीं के पास खड़े थे। वहाँ भी कुछ देर तक इन्द्रदेव ने महाराज से बातचीत की और इसके बाद चारों आदमी लौटकर बगीचे में चले आये। महाराज को बगीचे में आते देख और सबकोई भी जो इधर-उधर फैले हुए तमाशा देख रहे थे, बगीचे में आकर इकट्ठे हो गये और अब मानों महाराज का यह छोटा-सा दरबार बगीचे में लग गया।

बीरेन्द्र : (इन्द्रदेव से) हाँ, तो अब वे तमाशे कब देखने में आवेंगे, जो आप अपने साथ तिलिस्म में लेते गये थे?

इन्द्रदेव : जब आज्ञा हो, तभी दिखाये जाँय।

बीरेन्द्र : हम लोग तो देखने के लिए तैयार बैठे हैं।

जीत : मगर पहिले यह मालूम हो जाना चाहिए कि उनके देखने में कितना समय लगेगा, अगर थोड़ी देर का काम हो तो अभी देख लिया जाय।

इन्द्रदेव : जी, वह थोड़ी देर का काम तो नहीं है, इससे यही बेहतर होगा कि पहले जरूरी कामों से छुट्टी पाकर स्नान, ध्यान तथा भोजन इत्यादि से निवृत्त हो लें।

महाराज : हमारी भी यही राय है।

महाराज का मतलब समझकर सब कोई उठ खड़े हुए और जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में लगे। महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह तथा और भी सब कोई इन्द्रदेव के उचित प्रबन्ध को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। किसी को किसी तरह की तकलीफ न हुई और न कोई चीज माँगने की जरूरत ही पड़ी। इन्द्रदेव के ऐयार और कई खिदमतगार आकर मौजूद हो गये, और बात-की-बात में सब सामान ठीक हो गया।

स्नान तथा सन्ध्या-पूजा इत्यादि से छुट्टी पाकर सभों ने भोजन किया और इसके बाद इन्द्रदेव ने (बँगले के अन्दर) एक बहुत बड़े और सजे हुए कमरे में सभों को बैठाया, जहाँ सभों के योग्य दर्जे-ब-दर्जे बैठने का इन्तजाम किया गया था। एक ऊँची गद्दी पर महाराज सुरेन्द्रसिंह और उनके दाहिने तरफ बीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, देवीसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल तथा भूतनाथ वगैरह बैठे।

कुछ देर तक इधर-उधर की बातचीत होती रही, इसके बाद इन्द्रदेव ने हाथ जोड़कर पूछा–‘‘अब यदि आज्ञा हो तो तमाशों को...’’

महाराज : हाँ हाँ, अब तो हम लोग हर तरह से निश्चिन्त हैं!

सलाम करके इन्द्रदेव कमरे के बाहर चला गया, और घड़ी-भर तक लौट के नहीं आया, इसके बाद जब आया तो चुपचाप अपने स्थान पर आकर बैठ गया। सब कोई (भूतनाथ, पन्नालाल वगैरह) ताज्जुब के साथ उसका मुँह देख रहे थे कि इतने ही में सामनेवाले दरवाजे का परदा हटा और नानक कमरे के अन्दर आता हुआ दिखायी दिया। नानक ने बड़े अदब के साथ महाराज को सलाम किया और इन्द्रदेव का इशारा पाकर एक किनारे बैठ गया। इस समय नानक के हाथ में एक बहुत बड़ी मगर लपेटी हुई तस्वीर थी, जो कि उसने अपने बगल में रख ली।

नानक के बाद हाथ में तस्वीर लिए अर्जुन भी आ पहुँचा और महाराज को सलाम कर नानक के पास बैठ गया, उसी समय कमला का भाई अथवा भूतनाथ का लड़का हरनामसिंह दिखायी दिया, वह भी महाराज को प्रणाम करके अर्जुन के बगल में बैठ गया। हरनामसिंह के हाथ में एक छोटी-सी सन्दूकड़ी थी, जिसे उसने अपने सामने रख लिया।

इसके बाद नकाब पहने हुए तीन औरतें कमरे के अन्दर आयीं और अदब के साथ महाराज को सलाम करती हुई दूसरे दरवाजे से कमरे के बाहर निकल गयीं।

इस समय भूतनाथ और देवीसिंह के दिल की क्या हालत थी, सो वे ही जानते होंगे। उन्हें इस बात का तो विश्वास ही था कि इन औरतों में एक तो भूतनाथ की स्त्री और दूसरी चम्पा जरूर है, मगर तीसरी औरत के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते थे।

महाराज : (इन्द्रदेव से) इन औरतों में भूतनाथ की स्त्री और चम्पा जरूर होगीं?

इन्द्रदेव : (हाथ जोड़कर) जी हाँ, कृपानाथ।

महाराज : और तीसरी औरत कौन है?

इन्द्रदेव : तीसरी एक बहुत ही गरीब, नेक, सूधी और जमाने की सतायी हुई औरत है, जिसे देखकर और जिसका हाल सुनकर महाराज को बड़ी ही दया आयेगी। यह वह औरत है, जिसे मरे हुए एक जमाना हो गया, मगर अब उसे विचित्र ढंग से पैदा होते देख लोगों को बड़ा ही ताज्जुब होगा।

महाराज : आखिर वह औरत कौन है?

इन्द्रदेव : बेचारी दुःखिनी, कमला की माँ, यानी भूतनाथ की पहली स्त्री।

यह सुनते ही भूतनाथ चिल्ला उठा और उसने बड़ी मुश्किल से अपने को बेहोश होने को से रोका।


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