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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

छठवाँ बयान


रात आधे घण्टे से कुछ ज्यादे जा चुकी थी, जब सब कोई अपने जरूरी कामों से निश्चिन्त हो बँगले के अन्दर घुसे और घूमते-फिरते उसी चलती-फिरती तस्वीरों वाले कमरे में पहुँचे। इस समय बँगले के अन्दर हरएक कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी, जिसके विषय में भूतनाथ और देवीसिंह ने ताज्जुब के साथ ख्याल किया कि यह काम बेशक उन्हीं लोगों का होगा, जिन्हें यहाँ पहुँचने के साथ ही हम लोगों ने पहरा देते देखा था या जो हम लोगों को देखते ही बँगले के अन्दर घुसकर गायब हो गये थे। ताज्जुब है कि महाराज को तथा और लोगों को भी उनके विषय में कुछ खयाल नहीं है और न कोई पूछता ही है कि वे कौन थे और कहाँ गये, मगर हमारा दिल उनका हाल जाने बिना बेचैन हो रहा है।

चलती-फिरती तस्वीरों वाले कमरे में फर्श बिछा हुआ था और गद्दी लगी हुई थी, जिस पर सब कोई कायदे से अपने-अपने ठिकाने पर बैठ गये और इसके बाद इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार रोशनी गुल कर दी गयी। कमरे में बिल्कुल अन्धकार छा गया, यह नहीं मालूम होता था कि कौन क्या कर रहा है, खास करके इन्द्रजीतसिंह की तरफ लोगों का ध्यान था, जो इस तमाशे को दिखाने वाले थे, मगर कोई कह नहीं सकता था कि वह क्या कर रहे हैं।

थोड़ी ही देर बाद चारों तरफ की दीवारें चमकने लगीं और उन पर की कुल तस्वीरें बहुत साफ और बनिस्बत पहिले के अच्छी तरह पर दिखायी देनें लगीं। पहिले तो वे तस्वीरें केवल चित्रकारी ही मालूम पड़ती थीं परन्तु अब सचमुच की बातें दिखायी देने लगीं। मालूम होता था कि जैसे हम बहुत दूर से सच्चे किले, पहाड़, जंगल, मैदान, आदमी जानवर और फौज इत्यादि को देख रहे हैं। सब कोई ताज्जुब के साथ इस कैफियत को देख रहे थे कि यकायक बाजे की आवाज कान में आयी। उस समय सभों का ध्यान जमानिया के किले की तस्वीर पर जा पड़ा, जिधर से बाजे की आवाज आ रही थी। देखा कि–

एक बहुत बड़े मैदान में बेहिसाब फौज खड़ी है, जिसके आमने-सामने दो हिस्से हैं, मानों दो फौजें लड़ने के लिए तैयार खड़ी हैं। पैदल और सवार दोनों तरह की फौजें तथा तोप इत्यादि और भी जो कुछ सामान फौज में होना चाहिए, सब मौजूद है। इन दोनों फौजों में एक की पोशाक सुर्ख और दूसरे की आसमानी थी। बाजे की आवाज केवल सुर्ख वर्दीवाली फौज में से आ रही थी, बल्कि बाजेवाले अपना काम करते हुए साफ दिखायी दे रहे थे। यकायक सुर्ख वर्दी वाली फौज हिलती हुई दिखायी पड़ी। गौर करने पर मालूम हुआ कि सिपाहियों का मुँह घूम गया और वे दाहिनी तरफ वाली एक पहाड़ी की तरफ तेजी के साथ बाजे की गत पर पैर रखते हुए जा रहे हैं। जैसे-जैसे फौज दूर होती जाती, वैसे-ही-वैसे बाजे की आवाज भी दूर होती जाती है। देखते-ही-देखते वह फौज मानों कोसों दूर निकल गयी और एक पहाड़ी के पीछे की तरफ जाकर आँखों की ओट हो गयी। अब यह मैदान ज्यादा खुलासा दिखायी देने लगा। जितनी जगह दोनों फौजों से भरी थी, वह एक फौज के हिस्से में रह गयी। अब दूसरी अर्थात् आसमानी वर्दी वाली फौज में से बाजे की आवाज आने लगी और सवार तथा पैदल भी चलते हुए दिखायी देने लगे। एक सवार हाथ में झण्डा लिये तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाकर मैदान में आ खड़ा हुआ और झण्डे के इशारे से फौज को कवायद कराने लगा। यह कवायद घण्टे-भर तक होती रही और इस बीच में आले दर्जे की होशियारी, चालाकी, मुस्तैदी, सफाई और बहादुरी दिखायी दी, जिससे सब कोई बहुत ही खुश हुए और महाराज बोले, ‘‘बेशक फौज को ऐसा ही तैयार करना चाहिए।’’

कवायद खत्म करने के बाद बाजा बन्द हुआ और वह फौज एक तरफ को रवाना हुई, मगर थोड़ी ही दूर गयी होगी कि उस लाल वर्दी वाली फौज ने यकायक पहाड़ी के पीछे से निकलकर इस फौज पर धावा मारा। इस कैफियत को देखते ही आसमानी वर्दी वाली फौज के अफसर होशियार हो गये, झण्डे का इशारा पाते ही बाजा पुनः बजाने लगा, और फौजी सिपाही लड़ने के लिए तैयार हो गये। इस बीच में वह फौज भी आ पहुँची और दोनों में घमासान लड़ाई होने लगी।

इस कैफियत को देखकर महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, वगैरह तथा ऐयार लोग हैरान हो गये और हद से ज्यादे ताज्जुब करने लगे। लड़ाई के फन की ऐसी कोई बात नहीं बच गयी थी, जो इसमें न दिखायी पड़ी हो। कई तरह की घुसबन्दी और किले बन्दी के साथ-ही-साथ घुड़सवारों की कारीगरी ने सभों को सकते में डाल दिया और सभों के मुँह से बार-बार ‘वाह-वाह’ की आवाज निकलती रही। यह तमाशा कई घण्टे में खत्म हुआ और इसके बाद एकदम से अन्धकार हो गया, उस समय इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खँजर की रोशनी की और देवीसिंह ने इशारा पाकर रोशनी कर दी जो पहिले बुझा दी गयी थी।

इस समय रात थोड़ी सी बच गयी थी, जो सभों ने सोकर बिता दी, मगर स्वप्न में भी इसी तरह के खेल-तमाशे देखते रहे। जब सभों की आँखें खुलीं तो दिन घण्टे-भर से ज्यादे चढ़ चुका था। घबड़ाकर सब कोई उठ खड़े हुए और कमरे के बाहर निकलकर जरूरी कामों से छुट्टी पाने का बन्दोबस्त करने लगे। इस समय जिन चीजों की सभों को जरूरत पड़ी, वे सब चीजें वहाँ मौजूद पायी गयीं, मगर उन दोनों स्त्रियों पर किसी की निगाह न पड़ी, जिन्हें यहाँ आने के साथ ही सभों ने देखा था।

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