उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा–नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घर वाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जीता ही न छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?
रतन–कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था।
जालपा–क्या लेना है?
रतन–जौहरियों की दूकान पर एक दो चीजें देखूँगी। बस मैं तुम्हारा जैसा कंगन चाहती हूँ। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रुपये लौटा दिये। अब खुद तलाश करूँगी।
जालपा–मेरे कंगन में ऐसे कौन से रूप लगे हैं। बाजार में उससे बहुत अच्छे मिल जाते हैं।
रतन–मैं तो उसी नमूने का चाहती हूँ।
जालपा–उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब्र न आता हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी।
रतन ने उछलकर कहा–वाह, तुम अपना कंगन दे दो, तो क्या कहना है ! मूसलों ढोल बजाऊँ ! छः सौ का था न?
जालपा–हाँ, था तो छः सौ का, मगर महीनों सराफ की दूकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठकर करवायी थी। तुम्हारे खातिर दे दूँगी।
जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिये। रतन के मुख पर एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को पारस मिल गया हो। यही आत्मिक आनन्द की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर में बोली–तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूँ। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने मुझे इसे दे दिया। मगर एक बात है। अभी मैं सब रुपये न दे सकूँगी, अगर दो सौ रुपये फिर दे दूँ तो कुछ हरज है?
जालपा ने साहसपूर्वक कहा–कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ भी मत दो।
रतन–नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रुपये हैं, ये मैं दिये जाती हूँ, मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह खर्च हो जायेंगे। मेरे हाथ में तो रुपये टिकते ही नहीं, करूँ क्या। जब तक खर्च न हो जायें, मुझे एक चिन्ता-सी लगी रहती है, जैसे सिर पर कोई बोझ सवार हो।
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