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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


वकील साहब के भतीजे का नाम था मणिभूषण। बड़ा ही मिलनसार, हँसमुख, कार्य-कुशल। इसी एक महीने में उसने अपने सैकड़ों मित्र बना लिये। शहर में जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था, उन सबसे ऐसा मेल-जोल बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की कि रतन को खबर नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हज़ार रुपये जमा थे। उस पर तो उसने कब्जा कर ही लिया, मकानों के किराये भी वसूल करने लगा। गाँवों की तहसील भी खुद ही शुरू कर दी, मानो रतन से कोई मतलब नहीं है।

एक दिन टीमल ने आकर रतन से कहा–बहूजी, जाने वाला तो चला गया, अब घर-द्वार की भी कुछ खबर लीजिए। मैंने सुना भैयाजी ने बैंक का रुपया अपने नाम करा लिया।

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नेत्रों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। उसी दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया–चोरी का इलजाम लगा कर निकाला जिसमें रतन कुछ कह भी न सके।

अब केवल महराज रह गये। उन्हें मणिभूषण ने भांग पिला-पिलाकर ऐसा मिलाया कि वह उन्हीं का दम भरने लगा। महरी से कहते, बाबूजी का बड़ा रईसाना मिजा़ज है। कोई सौदा लाओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाये। बड़ों के घर में बड़े ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थीं, यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुँह पहले ही सी दिया गया था। उसके अधेड़ यौवन ने नये मालिक की रसिकता को चंचल कर दिया था। वह एक-न-एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मँडराया करती। रतन को ज़रा भी खबर न थी, किस तरह उसके लिए व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा–काकीजी, अब तो मुझे यहाँ रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचता हूँ, अब आपको लेकर घर चला जाऊँ। वहाँ आपकी बहू आपकी सेवा करेगी, बाल-बच्चों में आपका जी बहल जायगा और खर्च भी कम हो जायगा। आप कहें तो यह बँगला बेच दिया जाये। अच्छे दाम मिल जायेंगे।

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूर्च्छा भंग हो गयी हो, मानो किसी ने उसे झँझोड़कर जगा दिया हो। सकपकायी हुई आँखों से उसकी ओर देखकर बोली–क्या मुझसे कुछ कह रहे हो?

मणि–जी हाँ, कह रहा था कि अब हम लोगों का यहाँ रहना व्यर्थ है। आपको लेकर चला जाऊँ तो कैसा हो?

रतन ने उदासीनता से कहा–हाँ, अच्छा तो होगा।

मणि–काकाजी ने कोई वसीयतनामा लिखा हो, तो लाइए देखूँ। उनकी इच्छाओं के आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।

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