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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


दारोगा ने इन्स्पेक्टर की ओर देखकर मानो इस व्याख्या की दाद चाही, जो उन्हें सहर्ष मिल गयी।

तीनों अफ़सर रुख़सत हो गये और रमा एक सिगार जलाकर इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगा।

[४६]

एक महीना और निकल गया। मुकदमे के हाई कोर्ट में पेश होने की तिथि नियत हो गयी है। रमा के स्वभाव में फिर वही पहले की-सी भीरुता और खुशामद आ गयी है। अफसरों के इशारे पर नाचता है। शराब की मात्रा पहले से बढ़ गयी है, विलासिता ने मानो पंजे में दबा लिया है। कभी-कभी उसके कमरे में एक वेश्या ज़ोहरा भी आ जाती है, जिसका गाना वह बड़े शौक से सुनता है।

एक दिन उसने बड़ी हसरत के साथ ज़ोहरा से कहा–मैं डरता हूँ, कहीं तुमसे प्रेम न बढ़ जाये। उसका नतीजा इसके सिवा और क्या होगा कि रो-रोकर जिन्दगी काटूँ। तुमसे वफा की उम्मीद क्या हो सकती है !

ज़ोहरा दिल में खुश होकर अपनी बड़ी-बड़ी रतनारी आँखों से उसकी ओर ताकती हुई बोली–हाँ साहब, हम वफा क्या जानें, आखिर वेश्या ही तो ठहरीं ! बेवफा वेश्या भी कहीं वफ़ादार हो सकती है?

रमा ने आपत्ति करके पूछा–क्या इसमें कोई शक है?
 
ज़ोहरा–नहीं, ज़रा भी नहीं। आप लोग हमारे पास मुहब्बत से लबालब भरे दिल लेकर आते हैं; पर हम उसकी ज़रा भी कद्र नहीं करतीं। यही बात है न?

रमा– बेशक।

ज़ोहरा–मुआफ़ कीजिएगा, आप मरदों की तरफदारी कर रहे हैं। हक यह है कि वहाँ आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज़ गम गलत करने के लिए, महज आनन्द उठाने के लिए। जब आपको वफा की तलाश ही नहीं होती, तो वह मिले क्यों कर? लेकिन इतना मैं जानती हूँ कि हममें जितनी बेचारियाँ मर्दों की बेवफाई से निराश होकर अपना आराम-चैन खो बैठती हैं, उनका पता अगर दुनिया को चले, तो आँखें खुल जायँ। यह हमारी भूल है कि तमाशबीनों से वफ़ा चाहते हैं, चील के घोंसले में मांस ढूँढ़ते हैं; पर प्यासा आदमी अन्धे कुएं की तरफ दौड़े तो मेरे खयाल में उसका कोई कसूर नहीं।

उस दिन रात को चलते वक्त ज़ोहरा ने दारोगा को खुशखबरी दी, आज तो हजरत खूब मजे़ में आये। खुदा ने चाहा, तो तीन-चार दिन में बीवी का नाम भी न लें।

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