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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव

[४७]

रमा ज्यों-ज्यों ज़ोहरा के प्रेमपाश में फँसता जाता था, पुलिस के अधिकारी वर्ग उसकी ओर से निश्शंक होते जाते थे। उसके ऊपर जो कैद लगायी गई थी, वह धीरे-धीरे ढीली होने लगी, यहाँ तक कि एक दिन डिप्टी साहब शाम को सैर करने चले तो रमा को भी मोटर पर बिठा लिया। जब मोटर देवीदीन की दूकान के सामने से होकर निकली तो रमा, ने अपना सिर इस तरह भीतर खींच लिया कि किसी की नजर न पड़ जाय। उसके मन में बड़ी उत्सुक्ता हुई कि जालपा है या चली गई; लेकिन वह अपना सिर बाहर न निकाल सका। मन में वह अब भी यही समझता था कि मैंने जो रास्ता पकड़ा है, वह कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं है; लेकिन यह जानते हुए भी वह उसे छोड़ना न चाहता था। देवीदीन को देखकर उसका मस्तक आप-ही-आप लज्जा से झुक जाता, वह किसी दलील से अपना पक्ष सिद्ध न कर सकता। उसने सोचा, मेरे लिए सबसे उत्तम मार्ग यही है कि इनसे मिलना-जुलना छोड़ दूँ। उस शहर में तीन प्राणियों को छोड़कर किसी चौथे आदमी से उसका परिचय न था, जिसकी आलोचना या तिरस्कार का उसे भय होता।

मोटर इधर-उधर घूमती हुई हाबड़ा ब्रिज की तरफ चली जा रही थी, कि सहसा रमा ने एक स्त्री को सिर पर गंगा-जल का कलसा रक्खे घाटों के ऊपर आते देखा। उसके कपड़े बहुत मैले हो रहे थे और कृशांगी ऐसी थी कि कलसे के बोझ से उसकी गरदन दबी जाती थी। उसकी चाल कुछ-कुछ जालपा से मिलती हुई जान पड़ी। सोचा, जालपा यहाँ क्या करने आवेगी; मगर एक ही पल में कार और आगे बढ़ गयी और रमा को उस स्त्री का मुँह दिखायी दिया। उसकी छाती धक-से हो गयी वह जालपा ही थी। उसने खिड़की के बगल में सिर छिपाकर ग़ौर से देखा। बेशक जालपा थी; पर कितनी दुर्बल ! मानो कोई वृद्धा, अनाथा हो। न वह कान्ति थी, न वह लावण्य, न वह चंचलता, न वह गर्व। रमा हृदयहीन न था। उसकी आँखें सजल हो गयीं। जालपा इस दशा में और मेरे जीते जी ! अवश्य देवीदीन ने उसे निकाल दिया होगा और वह टहलनी बनकर अपना निर्वाह कर रही होगी। नहीं, देवीदीन इतना बेमुरौवत नहीं है। जालपा ने खुद उसके आश्रय में रहना स्वीकार न किया होगा। मानिनी तो है ही। कैसे मालूम हो, क्या बात है?

मोटर दूर निकल आयी थी। रमा की सारी चंचलता, सारी भोगलिप्सा गायब हो गयी थी। मलिन-वसना, दुःखिनी जालपा की वह मूर्ति आँखों के सामने खड़ी थी। किससे कहे? क्या कहे? यहाँ कौन अपना है? जालपा का नाम जबान पर आ जाय, तो सबके सब चौंक पड़ें और फिर घर से निकलना बन्द कर दें। ओह ! जालपा के मुख पर शोक की कितनी गहरी छाया थी, आँखों में कितनी निराशा ! आह, उन सिमटी हुई आँखों में जले हुए हृदय से निकलने वाली कितनी आहें सिर पीटती हुई मालूम होती थीं, मानो उन पर हँसी कभी आयी ही नहीं, मानो वह कली बिना खिले ही मुरझा गयी।

कुछ देर के बाद ज़ोहरा आयी, इठलाती, मुस्कुराती, लचकती; पर रमा आज उससे भी फटा-फटा रहा।

ज़ोहरा ने पूछा–आज किसी की याद आ रही है क्या?

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