उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
इस जमाने में ५०) की भुगुत ही क्या। पाँच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़े को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती; पर दयानाथ विचलित न होते थे। बड़ा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया–मैं तुम्हारी डिगरी के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो तो अपने पुरुषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो; लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से वह बिल्कुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर-सपाटे करता और माँ और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर माँग लिया और शाम को हवा खाने निकल गये। किसी का पंप-शू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बाँध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में। दस मित्रों ने एक एक कपड़ा बनवा लिया, तो दस शूट बदलने का साधन हो गया। सहकारिता का यह बिल्कुल नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसन्द किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रुपये थे और न नये परिवार का भार उठाने की हिम्मत; पर जागेश्वरी ने त्रिया हठ से काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरुष को झुकना पड़ा। जागेश्वरी बरसों से पुत्र-बधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएँ बनकर आयीं, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता। वह कुछ-कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आये। दीनदयाल ने सन्देश भेजा, तो उसको आँखें-सी मिल गयीं। अगर कहीं शिकार हाथ से निकल गया तो फिर न जाने कितने दिनों और राह देखनी पड़े। कोई यहाँ क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद। लड़के पर कौन रीझता है। लोग तो धन देखते हैं; इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।
दयानाथ ने कहा–भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझमें समाई नहीं है। जो आदमी अपने पेट की फिक्र नहीं कर सकता, उसका विवाह करना मुझे तो अधर्म सा मालूम होता है। फिर रुपये की भी तो फिक्र है। एक हजार तो टीमटाम के लिए चाहिए, जोड़े और गहनों के लिए अलग। (कानों पर हाथ रखकर) ना बाबा ! यह बोझ मेरे मान का नहीं।
जागेश्वरी पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ। बोली–वह भी तो कुछ देगा।
‘मैं उससे माँगने तो जाऊँगा नहीं।’
‘तुम्हारे माँगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लड़की के ब्याह में पैसे का मुँह कोई नहीं देखता। हाँ, मकदूर चाहिए; सो दीनदयाल पोढ़े आदमी हैं। और फिर यही एक सन्तान है। बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए।’
दयानाथ को अब कोई बात न सूझी, केवल यही कहा–वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें। मैं न कहूँगा कि दो, न कहूँगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता। और लूँ तो दूँगा किसके घर से।
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