उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
बरामदे में माल तौला जा रहा था। मेज पर रुपये पैसे रखे जा रहे थे और रमा चिन्ता में डूबा बैठा हुआ था। किससे सलाह ले। उसने विवाह ही क्यों किया? सारा दोष उसका अपना था। जब वह घर की दशा जानता था, तो क्यों उसने विवाह करने से इनकार नहीं किया? आज उसका मन काम में नहीं लगता था। समय से पहले उठकर चला आया।
जालपा ने उसे देखते हुए पूछा–मेरी चिट्ठियाँ छोड़ तो नहीं दीं?
रमा ने बहाना किया–अरे इनकी तो याद ही नहीं रही। जेब में पड़ी रह गयी।
जालपा–यह बहुत अच्छा हुआ। लाओ मुझे दे दो, अब न भेजूँगी।
रमा–क्यों, कल भेज दूँगा।
जालपा–नहीं अब मुझे भेजना ही नहीं है, कुछ ऐसी बातें लिख गयी थी, जो मुझे न लिखना चाहिए था। अगर तुमने छोड़ दी होती, तो मुझे दुःख होता। मैंने तुम्हारी निन्दा की थी।
यह कहकर वह मुस्करायी।
रमानाथ–जो बुरा है, दगाबाज़ है, धूर्त, उसकी निन्दा होनी ही चाहिए।
जालपा ने व्यग्र होकर पूछा–तुमने चिट्ठियाँ पढ़ लीं क्या?
रमा ने निःसंकोच भाव से कहा–हाँ, यह कोई अक्षम्य अपराध है?
जालपा कातर स्वर में बोली–तब तो तुम मुझसे बहुत नाराज होगे?
आँसुओं के आवेग से जालपा की आवाज़ रुक गयी। उसका सिर झुक गया और झुकी हुई आँखों से आँसुओं की बूँदें अंचल पर गिरने लगीं। एक क्षण में उसने स्वर को सँभालकर कहा–मुझसे बड़ा भारी अपराध हुआ है। जो चाहे सजा दो; पर मुझसे अप्रसन्न मत हो। ईश्वर जानते हैं तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दुःख हुआ। मेरी कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें निकल गयीं।
जालपा जानती थी कि रमा को आभूषणों की चिन्ता मुझसे कम नहीं है; लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दुःख बढ़ाकर कहते हैं। जो बातें परदे की समझी जाती हैं, उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपनापन जाहिर होता है। हमारे मित्र समझते हैं, हमसे ज़रा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो जाती है। अपनापन दिखाने की आदत औरतों में कुछ अधिक होती है।
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