उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
गंगू की शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो शायद रमा को दूकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का अभी तक अनुभव न हुआ था। दुकान पर जाकर बोला–यहाँ हम ऐसे मजदूरों का कहाँ गुज़र है महाराज। गाँठ में कुछ हो भी तो।
गंगू–यह आप क्या कहते हैं सरकार, आपकी दुकान है, जो चीज चाहिए ले जाइए, दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धन्य भाग कि आप हमारी दूकान पर आये तो। दिखाऊँ कोई जड़ाऊ चीज? कोई कंगन, कोई हार? अभी हाल ही में दिल्ली का माल आया है।
रमानाथ–कोई हलके दामों का हार दिखाइए।
गंगू–यही कोई सात-आठ सौ तक?
रमानाथ–अजी नहीं, हद चार सौ तक।
गंगू–मैं आपको दोनों दिखाये देता हूँ। जो पसन्द आवे ले लीजियेगा। हमारे यहाँ किसी तरह का दगल-फसल नहीं बाबू साहब। इसकी आप जरा भी चिन्ता न करें। पाँच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढ़ा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुँह दिखाना है बाबूजी।
सन्दूक सामने आया, गंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किये। रमा की आँखें खुल गयी, जी लोट पोट हो गया। क्या सफाई थी ! नगीनों की कितनी सुन्दर सजावट ! कैसी आब़-ताब ! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था सौ रुपये से ज्यादा उधार न लगाऊँगा, लेकिन चार सौ वाला हार आँखों से कुछ जँचता न था। और जेब में कुल तीन सौ रुपये थे। सोचा अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसन्द न किया, तो फायदा ही क्या। ऐसी चीज ले जाऊँ। कि वह देखते ही फड़क उठे। यह जड़ाऊ हार उसकी गरदन में कितनी शोभा देगा। वह हार एक सहस्त्र मणि- रंजित नेत्रों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था; पर मुँह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपये उधार लगाने से इनकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा–आपके लायक तो बाबूजी यही चीज है, अँधेरे घर में रख दीजिए, तो उजाला हो जाय।
रमानाथ–पसन्द तो मुझे भी यही है; लेकिन मेरे पास तीन सौ रुपये हैं यह समझ लीजिए।
शर्म से रमा के मुँह पर लाली छा गयी। वह धड़कते हुए हृदय से गंगू का मुँह देखने लगा।
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