उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जब चिराग जले तक रतन न आयी, तो रमा ने समझा अब न आयेगी। रुपये आलमारी में रक्ख दिये और घूमने चल दिया। अभी उसे गये दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुँची और आते ही आते बोली–कंगन तो आ गये होंगे?
जालपा–हाँ आ गये हैं, पहन लो ! बेचारे कई दफ़ा सराफ़ के पास गये। अभागा देता ही नहीं हीले-हवाले करता है।
रतन–कैसा सराफ़ है कि इतने दिन से हीले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रुपये झमेले में पड़ जायेंगे, तो देती ही क्यों। न रुपये मिलते हैं, न कंगन मिलता है।
रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली–आपके रुपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब सराफ़ देगा, तभी तो लायेंगे?
रतन–कुछ वादा करता है, कब तक देगा?
जालपा–उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।
रतन–तो इसके मानी यह हैं कि अब वह चीज़ न बनायेगा?
जालपा–जो चाहे समझ लो !
रतन–तो मेरे रुपये ही दे दो, बाज़ आयी ऐसे कंगन से।
जालपा झमककर उठी, अलमारी से थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली–ये आपके रुपये रक्खे हैं, ले जाइए।
वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वही थी, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रुपये खर्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन का तकाजा करती थी। रुपये देखकर उसका भ्रम शान्त हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली–अगर दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपये रहने दो।
जालपा–मुझे तो आशा नहीं है कि इतनी जल्दी दे दे। जब चीज़ तैयार हो जायेगी, तो रुपये माँग लिये जायँगे।
रतन–क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपये रहें या न रहें। रुपये आते तो दिखायी देते हैं, जाते नहीं दिखायी देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?
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