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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


परन्तु किया क्या जाय? जब नहीं है और न होने की कोई आशा ही है, तब उसके लिए व्यर्थ चिन्ता करने से क्या लाभ? इसके सिवा जो बात अपनी सन्तान से होती, वही भाई की सन्तान से भी तो हो रही है। जितना स्नेह अपनी पर होता, उतना ही इन पर भी है। जो आनन्द उनकी बाल-क्रीड़ा से आता, वही इनकी क्रीड़ा से भी आ रहा है। फिर मैं नहीं समझता कि चिन्ता क्यों की जाय।

रामेश्वरी कुढ़कर बोली–तुम्हारी समझ को मैं क्या कहूँ। इसी से तो रात-दिन जला करती हूँ। भला यह तो बताओ कि तुम्हारे पीछे क्या इन्हीं से तुम्हारा नाम चलेगा?

बाबू साहब हँसकर बोले–अरे तुम भी कहाँ की पोच बातें लाईं। नाम संतान से नहीं चलता। नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्चा-बच्चा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके? इसी प्रकार जितने महात्मा हो गये हैं, उन सबका नाम क्या संतान ही की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, तो सन्तान से जितना नाम चलने की आशा रहती है, उतना ही नाम डूब जाने की भी सम्भावना रहती है, परन्तु सुकृति ऐसी वस्तु है जिसके नाम बढ़ने के सिवा घटने की कभी आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरधारीलाल कितने नामी आदमी थे? उनके सन्तान कहाँ है? पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला जा रहा है, और न जाने कितने दिनों तक चला जायगा।

रामेश्वरी–शास्त्रा में लिखा है कि जिसके पुत्र नहीं होता उनकी मुक्ति नहीं होती।

बाबू साहब–मुक्ति पर मुझे विश्वास ही नहीं मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना मान लिया जाय, तो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवानों की मुक्ति हो ही जाती है? मुक्ति का भी क्या सहज उपाय है। ये जितने पुत्रवाले हैं, सभी की तो मुक्ति हो जाती होगी?

रामेश्वरी निरुत्तर होकर बोलीं–अब तुमसे कौन बकवास करे। तुम तो अपने सामने किसी को मानते ही नहीं।

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