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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446
आईएसबीएन :978-1-61301-064

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


मैंने खट्टे मन से कहा–इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों को भी आठ आने रोज इनाम दिया करो, तो शायद इनसे ज्याोदा तमीजदार हो जाएं।

‘तो क्याज तुम समझते हो, यह सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते हैं?’

‘जी नहीं, कदापि नहीं। तमीज़ और अदब तो इनके रक्ते में मिल गया है।’

गाड़ी चली। डाक थी। प्रयाग से चली तो प्रतापगढ़ जाकर रुकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोला। मैं तुरंत चिल्लाप उठा, दूसरा दरजा है-सेकेंड क्लास है।

उस मुसाफिर ने डिब्बे् के अन्द्र आकर मेरी ओर एक विचित्र उपेक्षा की दृष्टि से देखकर कहा–जी हां, सेवक इतना समझता है, और बीच वाले बर्थ पर बैठ गया। मुझे कितनी लज्जाग आई, कह नहीं सकता।

भोर होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुंचे। स्टेशन पर कई आदमी हमारा स्वारगत करने के लिए खड़े थे। पांच बेगार। बेगारों ने हमारा लगेज उठाया। दोनों भद्र पुरुष पीछे-पीछे चले। एक मुसलमान था रियासत अली, दूसरा ब्राह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर परिचित नेत्रों से देखा, मानो कह रहे हैं, तुम कौवे होकर हंस के साथ कैसे?

रियासतअली ने ईश्वेरी से पूछा–यह बाबू साहब क्यार आपके साथ पढ़ते हैं?

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