उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
सहसा झुनिया भारी कंठ से बोली–मैं बड़ी अभागिन हूँ दीदी। मेरे मन में ऐसा आ रहा है, जैसे मेरे ही कारन इनकी यह दशा हुई है। जी कुढ़ता है, तब मन दुखी होता ही है, फिर गालियाँ भी निकलती हैं, सराप भी निकलता है। कौन जाने मेरी गालियों...
इसके आगे वह कुछ न कह सकी। आवाज आँसुओं के रेले में बह गयी। चुहिया ने अंचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा–कैसी बातें सोचती है बेटी! यह तेरे सिन्दूर का भाग है कि यह बच गये। मगर हाँ, इतना है कि आपस में लड़ाई हो, तो मुँह से चाहे जितना बक ले, मन में कीना न पाले। बीज अन्दर पड़ा, तो अँखुआ निकले बिना नहीं रहता।
झुनिया ने कम्पन-भरे स्वर में पूछा–अब मैं क्या करूँ दीदी?
चुहिया ने ढाढ़स दिया–कुछ नहीं बेटी! भगवान् का नाम ले। वही गरीबों की रक्षा करते हैं। उसी समय गोबर ने आँखें खोलीं और झुनिया को सामने देखकर याचना भाव से क्षीण-स्वर में बोला–आज बहुत चोट खा गया झुनिया! मैं किसी से कुछ नहीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। कहा-सुना माफ कर! तुझे सताया था, उसी का यह फल मिला। थोड़ी देर का और मेहमान हूँ। अब न बचूँगा। मारे दरद के सारी देह फटी जाती है।
चुहिया ने अन्दर आकर कहा–चुपचाप पड़े रहो। बोलो-चालो नहीं। मरोगे नहीं, इसका मेरा जुम्मा।
गोबर के मुख पर आशा की रेखा झलक पड़ी। बोला–सच कहती हो, मैं मरूँगा नहीं?
‘हाँ, नहीं मरोगे। तुम्हें हुआ क्या है? जरा सिर में चोट आ गयी है और हाथ की हड्डी उतर गयी है। ऐसी चोटें मर्दों को रोज ही लगा करती हैं। इन चोटों से कोई नहीं मरता।’
‘अब मैं झुनिया को कभी न मारूँगा।’
‘डरते होगे कि कहीं झुनिया तुम्हें न मारे।’
‘वह मारेगी भी, तो न बोलूँगा।’
‘अच्छा होने पर भूल जाओगे।’
‘नहीं दीदी, कभी न भूलूँगा।’
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