लोगों की राय

उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

54 पाठक हैं

‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


यह कहते-कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीटकर जोर-जोर से रोने लगे।

मेहता ने उन्हें छाती से लगाकर दुखित स्वर में कहा–खन्नाजी, ज़रा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार होकर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्धन रहकर भी स्त्रियों के विश्वास-पात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भी; बल्कि तब कोई आपका शत्रु रहेगा ही नहीं। आइए, घर चलें। जरा आराम कर लेने से आपका चित्त शान्त हो जायगा। खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरस्ते पर आये। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुँच गये। खन्ना ने उतरकर शान्त स्वर में कहा–कार आप ले जायँ। अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है। मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा–तुम चलकर आराम से लेटो, हम बैठे गप-शप करेंगे; घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है। खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण-कंठ से बोले–मुझसे जो अपराध हुए हैं, उन्हें क्षमा कर देना मालती! तुम और मेहता, बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा है तुम मुझे अपनी नजरों से न गिराओगी। शायद दस-पाँच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पड़े। किस्मत ने कैसा धोखा दिया।

मेहता ने कहा–मैं आपसे सच कहता हूँ खन्नाजी, आज मेरी नज़रों में आपकी जो इज्जत है वह कभी न थी।

तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविन्दी भीतर से आकर बोली–क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैं? महाराज तो बड़ी बुरी खबर लाया। खन्ना के मन में ऐसा प्रबल, न रुकनेवाला, तूफानी आवेश उठा कि गोविन्दी के चरणों पर गिर पड़े, और उसे आँसुओं से धो दें। भारी गले से बोले–हाँ प्रिये, हम तबाह हो गये।

उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सान्त्वना के लिए विकल हो रही थी; सच्ची स्नेह में डूबी हुई सान्त्वना के लिए, उस रोगी की भाँति जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा-भरी आँखों से ताक रहा हो। वही गोविन्दी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म किया, जिसका हमेशा अपमान किया, जिससे हमेशा बेवफाई की, जिसे सदैव जीवन का भार समझा, जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहे, वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिये उन पर वार रही थी, जैसे उन चरणों में ही उनके जीवन का स्वर्ग हो, जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रखकर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा में, इस घोर विपत्ति में, मानो वह उन्हें कंठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल-विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैं, और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोद कर फेंक देता, उन्हीं से, नौका टूट जाने पर, हम चिमट जाते हैं।

गोविन्दी ने उन्हें एक सोफा पर बैठा दिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली–तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो? धन के लिए, जो सारे पाप की जड़ है?  उस धन से हमें क्या सुख था? सबेरे से आधी रात तक एक-न-एक झंझट–आत्मा का सर्वनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थे, तुम्हें सम्बन्धियों को पत्र लिखने तक की फुरसत न मिलती थी। क्या बड़ी इज्जत थी? हाँ, थी; क्योंकि दुनिया आज तक धन की पूजा करती चली आयी है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी है, तुम्हारे सामने पूँछ हिलायेगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैं, तुम क्या हो; अगर तुममें सच्चाई है, न्याय है, त्याग है, पुरुषार्थ है, तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझकर मुँह फेर लेंगे; बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जायँगे! मैं गलत तो नहीं कहती मेहताजी?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book