उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
मातादीन कै कर चुकने के बाद निर्जीव-सा जमीन पर लेट गया, मानो कमर टूट गयी हो, मानो डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी खोज रहा हो। जिस मर्यादा के बल पर उसकी रसिकता और घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था। उसका धर्म इसी खान-पान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ कट गयी। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे, लाख गोबर खाय और गंगाजल पिये, लाख दान-पुण्य और तीर्थ-व्रत करे, उसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता; अगर अकेले की बात होती, तो छिपा ली जाती; यहाँ तो सबके सामने उसका धर्म लुटा। अब उसका सिर हमेशा के लिए नीचा हो गया। आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्नेहमयी माता भी उससे घृणा करेगी। और संसार से धर्म का ऐसा लोप हो गया कि इतने आदमी केवल खड़े तमाशा देखते रहे। किसी ने चूँ तक न की। एक क्षण पहले जो लोग उसे देखते ही पालागन करते थे, अब उसे देखकर मुँह फेर लेंगे। वह किसी मन्दिर में भी न जा सकेगा, न किसी के बरतन-भाँड़े छू सकेगा। और यह सब हुआ इस अभागिन सिलिया के कारण।
सिलिया जहाँ अनाज ओसा रही थी, वहीं सिर झुकाये खड़ी थी, मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है। सहसा उसकी माँ ने आकर डाँटा–खड़ी ताकती क्या है? चल सीधे घर, नहीं बोटी-बोटी काट डालूँगी। बाप-दादा का नाम तो खूब उजागर कर चुकी, अब क्या करने पर लगी है?
सिलिया मूर्तिवत् खड़ी रही। माता-पिता और भाइयों पर उसे क्रोध आ रहा था। यह लोग क्यों उसके बीच में बोलते हैं। वह जैसे चाहती है, रहती है, दूसरों से क्या मतलब? कहते हैं, यहाँ तेरा अपमान होता है, तब क्या कोई ब्राह्मण उसका पकाया खा लेगा? उसके हाथ का पानी पी लेगा? अभी जरा देर पहले उसका मन दातादीन के निठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा था, पर अपने घरवालों और बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया।
विद्रोह-भरे मन से बोली–मैं कहीं न जाऊँगी। तू क्या यहाँ भी मुझे जीने न देगी? बुढ़िया
ककर्श स्वर में बोली–तू न चलेगी?
‘नहीं।’
‘चल सीधे से।’
‘नहीं जाती।’
तुरंत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिये और उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया जमीन पर बैठ गयी। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गयी, पीठ और कमर की खाल छिल गयी; पर वह जाने पर राजी न हुई।
तब हरखू ने लड़कों से कहा–अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गयी; मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आयी तो लहू पी जाऊँगा।
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