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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्ज़ाजी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था।

लकड़हारा हिरन को कन्धे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्ज़ा ने भी कदम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गये।

उन्होंने पुकारा–जरा सुनिए, मिर्ज़ाजी, आप तो भागे जा रहे हैं।

मिर्ज़ाजी ने बिना रुके हुए जवाब दिया–वह गरीब बोझ लिये इतनी तेजी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते?

लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था।

मिर्ज़ा साहब ने आकर पूछा–थक गये, क्यों?

लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा–बहुत भारी है सरकार!

‘तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ।’

लकड़हारा हँसा। मिर्ज़ा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताजे थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिर्ज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़ गया।

‘तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?’

लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी–सरकार आप लोग बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।

‘मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ।’

‘इससे क्या होता है मालिक!’

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