उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
गोबर ने आड़े हाथों लिया–तुम्हारा यही धमार्त्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा है। साफ-साफ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें ओर गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।
होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया–मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाय। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस। दो-चार मन भूसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।
गोबर ने तिरस्कार किया–तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे?
धनिया ने तीखी आँखों से देखा–अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोला-भाली किसी का करज नहीं खाया है।
होरी ने अपनी सफाई दी–अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय, तो इसमें कौन-सी बुराई है?
गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था।
धनिया ने सिर हिला कर कहा–जो उनका घर बसायेगा, वह अस्सी रुपए की गाय लेकर चुप न होगा। एक थैली गिनवायेगा।
होरी ने पुचारा दिया–यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है–ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीके-दार है।
धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से बोली–मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें।
होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा–मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है; लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं लक्ष्मी है। बात यह है कि उसकी घरवाली जबान की बड़ी तेज थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ जरूर हाथ लगता है। मैंने कहा–तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती।
‘तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ।’
‘लगा अपनी घरवाली की बुराई करने–भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी!’
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