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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


गोविन्दी का अन्तःकरण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठी थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय था, उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी।

उसी नशे में बोली–तो चलिए, मुझे उन के दर्शन करा दीजिए।

मेहता ने बालक के कपोलों में मुँह छिपाकर कहा–वह तो यहीं बैठी हुई हैं।

‘कहाँ, मैं तो नहीं देख रही हूँ।’

‘उसी देवी से बोल रहा हूँ।’

गोविन्दी ने जोर से कहकहा मारा–आपने आज मुझे बनाने की ठान ली, क्यों?

मेहता श्रद्धानत होकर कहा–देवीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँ, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँ, आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।

गोविन्दी की आँखों से आनन्द के आँसू निकल पड़े; इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति का सामना न करेगी। उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा–आप दार्शनिक क्यों हुए मेहताजी? आपको तो कवि होना चाहिए था।

मेहता सरलता से हँसकर बोले–क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है?  दर्शन तो केवल बीच की मंजिल है।

‘तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं; लेकिन आप यह भी जानते हैं, कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता?’

‘जिसे संसार दुःख कहता है, वहाँ कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ जरा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो-चार कविताएँ पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कम्पन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलानेवाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूँ। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप-जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनायी।’

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