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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में वह रहता है, वह मिर्ज़ा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल भर से उसमें रहता है; लेकिन मिर्ज़ा ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया। उन्हें शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है।

थोड़ी देर में एक इक्केवाला रुपये माँगने आया। अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी डाढ़ी, और काना। उसकी लड़की बिदा हो रही थी। पाँच रुपए की उसे बड़ी जरूरत थी। गोबर ने एक आना रुपया सूद पर रुपए दे दिये।

अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा–भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोकते रहोगे।

गोबर ने शहर के खर्च का रोना रोया–थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी?

अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला–खरच अल्लाह देगा भैया! सोचो, कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँ, जितना तुम अकेले खरच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। खुदा कसम, जब मैं अकेला यहाँ रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके-माँदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दूकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गयी है, उसी कमाई में उसकी रोटियाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आखिर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो जिन्दगी ही गारत हो गयी। मैं तो कहता हूँ, तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है! रात को लेटोगे तो घरवाली पाँव दबायेगी। सारी थकान मिट जायगी।

यह बात गोबर के मन में बैठ गयी। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गये, और उसने घर चलने की तैयारी कर दी; मगर याद आया कि होली आ रही है; इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गयी। आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँ, बहनों और झुनिया के लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा, और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए जापानी चूड़ियाँ और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिन्दूर और आईना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ़्राक जो बाजार में बना बनाया मिलता है। उसने रुपए निकाले और बाजार चला। दोपहर तक सारी चीजें आ गयीं। बिस्तर भी बँध गया, मुहल्लेवालों को खबर हो गयी, गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे बिदा करने आये। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा–तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान् ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूँगा।

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