उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
54 पाठक हैं |
‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
पण्डित उसके सामने खड़े होकर बोले–चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।
होरी ने विष का घूँट पीकर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया, इधर महीनों से उसे पेट-भर भोजन न मिलता था। प्रायः एक जून तो चबैने पर ही कटता था, दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़ाका हो गया; कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी उठे, मगर हाथ जवाब दे रहा था। उस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता, तो ताजा हो जाता; लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियाँ पड़ने का भय था।
धनिया और तीनों लड़कियाँ ऊख के गट्ठे लिये गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आयीं, और गट्ठे पटककर दम मारने लगीं कि दातादीन ने डाँट बताई–यहाँ तमाशा क्या देखती है धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर-भर में तू एक खेप लायी है। इस हिसाब से तो दिन भर में भी ऊख न ढुल पायेगी।
धनिया ने त्योरी बदलकर कहा–क्या जरा दम भी न लेने दोगे महराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। जरा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ तो हाल मालूम हो।
दातादीन बिगड़ उठे–पैसे देते हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम मार लेना है, तो घर जाकर दम लो।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई–तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा–जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।
दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं–जान पड़ता है, अभी मिजाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी–तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने नहीं जाती।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा–अगर यही हाल है तो भीख भी माँगोगी।
धनिया के पास जवाब तैयार था; पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी, नहीं बात बढ़ जाती; लेकिन आवाज की पहुँच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली–भीख माँगो तुम, जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वहीं चार पैसे पायेंगे।
|