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गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।

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देहातों में साल के छः महीने किसी न किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है; आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियाँ होती हैं। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धमकियाँ और कारिन्दे की बोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकतीं। घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गाँठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवाह नहीं। जीवन की आनन्दवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता।

यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी। वहीं भंग बनती थी, वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिन्दा साहब के दस-पाँच रुपए खर्च हो जाते थे। और किसमें यह सामर्थ्य थी कि अपने द्वार पर जलसा कराता?

लेकिन अबकी गोबर ने गाँव के सारे नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई है। गोबर के द्वार भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फर्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद है; पर गाये कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है। यहाँ भंग में गुलाब-जल और केसर और बादाम की बहार है। हाँ-हाँ, सेर-भर बादाम गोबर खुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आँखें खुल जाती हैं। खमीरा तमाखू लाया है, खास बिसवाँ की! रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपए कमाना भी जानता है; और खरच करना भी जानता है। गाड़कर रख लो, तो कौन देखता है?  धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है। जितने गानेवाले हैं, सबका नेवता भी है। और गाँव में न नाचनेवालों की कमी है, न गानेवालों की, न अभिनय करनेवालों की। शोभा ही लँगड़ों की ऐसी नकल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले–आदमी की भी, जानवर की भी। गिरधर नकल करने में बेजोड़ है। वकील की नकल वह करे, पटवारी की नकल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की–सभी की नकल कर सकता है। हाँ, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मँगा दिया है, और उसकी नकलें देखने जोग होंगी।

यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से ही तमाशा देखनेवाले जमा होने लगे। आस-पास के गाँवों से दर्शकों की टोलियाँ आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार हजार आदमी जमा हो गये। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप धरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्वाट सिर, वही बड़ी मूँछें, और वही तोंद! बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं।

ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देखकर कहते हैं–अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान भी देख ले, तो तड़प जाय। और ठकुराइन फूलकर कहती हैं, जभी तो नयी नवेली लाये।

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