उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
‘एक कागद का?’
‘हाँ, सरकार!’
‘एक दस्तूरी का?’
‘हाँ, सरकार!’
‘एक सूद का?’
‘हाँ, सरकार!’
‘पाँच नगद, दस हुए कि नहीं?’
‘हाँ, सरकार! अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए।’
‘कैसा पागल है?’
‘नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए।’
इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की–बारी-बारी से सबकी खबर ली गयी। और फबतियों में चाहे कोई नयापन न हो और नकलें पुरानी हों; लेकिन गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हृदय थे कि बेबात की बात में भी हँसते थे। रात-भर भँड़ैती होती रही और सताये हुए दिल, कल्पना में प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे। आखिरी नकल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे।
सबेरा होते ही जिसे देखो, उसी की जबान पर वही रात के गाने, वही नकल, वही फिकरे। मुखिये तमाशा बन गये। जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फिकरे कसते हैं। झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज आदमी थे, इसे दिल्लगी में लिया; मगर पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी। और पण्डित दातादीन तो इतने तुनुक-मिजाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे। वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे। कारिन्दा की तो बात ही क्या, राय साहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे। उनकी ऐसी हँसी उड़ाई जाय और अपने ही गाँव में–यह उनके लिये असह्य था। अगर उनमें ब्रह्मतेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते। ऐसा शाप देते कि सब के सब भस्म हो जाते; लेकिन इस कलियुग में शाप का असर ही जाता रहा। इसलिए उन्होंने कलियुगवाला हथियार निकाला। होरी के द्वार पर आये और आँखें निकालकर बोले–क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरी? अब तो तुम अच्छे हो गये। मेरा कितना हरज हो गया, यह तुम नहीं सोचते।
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