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गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


कुँवर साहब दुर्वासनाओं के भंडार थे। शराब, गाँजा, अफीम, मदक, चरस, ऐसा कोई नशा न था, जो वह न करते हों। और ऐयाशी तो रईस की शोभा है। वह रईस ही क्या, जो ऐयाश न हो। धन का उपभोग और किया ही कैसे जाय? मगर इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी वह ऐसे प्रतिभावान् थे कि अच्छे-अच्छे विद्वान् उनका लोहा मानते थे। संगीत, नाट्यकला, हस्तरेखा, ज्योतिष, योग, लाठी, कुश्ती, निशानेबाजी आदि कलाओं में अपना जोड़ न रखते थे। इसके साथ ही बड़े दबंग और निर्भीक थे। राष्ट्रीय आन्दोलन में दिल खोलकर सहयोग देते थे; हाँ, गुप्त रूप से। अधिकारियों से यह बात छिपी न थी, फिर भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी और साल में एक-दो बार गवर्नर साहब भी उनके मेहमान हो जाते थे। और अभी अवस्था तीस-बत्तीस से अधिक न थी और स्वास्थ्य तो ऐसा था कि अकेले एक बकरा खाकर हजम कर डालते थे।

राय साहब ने समझा, बिल्ली के भागों छींका टूटा। अभी कुँवर साहब षोडशी से निवृत्त भी न हुए थे कि राय साहब ने बातचीत शुरू कर दी। कुँवर साहब के लिए विवाह केवल अपना प्रभाव और शक्ति बढ़ाने का साधन था। राय साहब कौंसिल के मेम्बर थे ही; यों भी प्रभावशाली थे। राष्ट्रीय संग्राम में अपने त्याग का परिचय देकर श्रद्धा के पात्र भी बन चुके थे। शादी तय होने में कोई बाधा न हो सकती थी। और वह तय हो गयी।

रहा एलेक्शन। यह सोने की हँसिया थी, जिसे न उगलते बनता था, न निगलते। अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गये थे और डंके की चोट ऐलान कर दिया था कि चाहे हर एक वोटर को एक-एक हजार ही क्यों न देना पड़े, चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी में मिल जाय; मगर राय अमरपालसिंह को कौंसिल में न जाने दूँगा। और उन्हें अधिकारियों ने अपनी सहायता का आश्वासन भी दे दिया था। राय साहब विचारशील थे, चतुर थे, अपना नफा-नुकसान समझते थे; मगर राजपूत थे। और पोतड़ों के रईस थे। वह चुनौती पाकर मैदान से कैसे हट जायँ? यों उनसे राजा सूर्यप्रतापसिंह ने आकर कहा होता, भाई साहब, आप तो दो बार कौंसिल में जा चुके, अबकी मुझे जाने दीजिए, तो शायद राय साहब ने उनका स्वागत किया होता। कौंसिल का मोह अब उन्हें न था; लेकिन इस चुनौती के सामने ताल ठोंकने के सिवा और कोई राह ही न थी। एक मसलहत और भी थी। मिस्टर तंखा ने उन्हें विश्वास दिलाया था कि आप खड़े हो जायँ, पीछे राजा साहब से एक लाख की थैली लेकर बैठ जाइएगा। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि राजा साहब बड़ी खुशी से एक लाख दे देंगे; मेरी उनसे बातचीत हो चुकी है; पर अब मालूम हुआ, राजा साहब राय साहब को परास्त करने का गौरव नहीं छोड़ना चाहते और इसका मुख्य कारण था, राय साहब की लड़की की शादी कुँवर साहब से ठीक होना। दो प्रभावशाली घरानों का संयोग वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक समझते थे। उधर राय साहब को ससुराली जायदाद मिलने की भी आशा थी। राजा साहब के पहलू में यह काँटा भी बुरी तरह खटक रहा था। कहीं वह जायदाद इन्हें मिल गयी–और कानून राय साहब के पक्ष में था ही–तब तो राजा साहब का एक प्रतिद्वन्दी खड़ा हो जायगा; इसलिए उनका धर्म था कि राय साहब को कुचल डालें और उनकी प्रतिष्ठा धूल में मिला दें। बेचारे राय साहब बड़े संकट नें पड़ गये थे। उन्हें यह सन्देह होने लगा था कि केवल अपना मतलब निकालने के लिए मिस्टर तंखा ने उन्हें धोखा दिया। यह खबर मिली थी कि अब राजा साहब के पैरोकार हो गये हैं। यह राय साहब के घाव पर नमक था। उन्होंने कई बार तंखा को बुलाया था; मगर वह या तो घर पर मिलते ही न थे, या आने का वादा करके भूल जाते थे। आखिर आज खुद उनसे मिलने का इरादा करके वह उनके पास जा पहुँचे। संयोग से मिस्टर तंखा घर पर मिल गये; मगर राय साहब को पूरे घंटे-भर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। यह वही मिस्टर तंखा हैं, जो राय साहब के द्वार पर एक बार रोज हाजिरी दिया करते थे। आज इतना मिजाज हो गया है। जले बैठे थे। ज्योंही मिस्टर तंखा सजे-सजाये, मुँह में सिगार दबाये कमरे में आये और हाथ बढ़ाया कि राय साहब ने बमगोला छोड़ दिया–मैं घंटे-भर से यहाँ बैठा हुआ हूँ और आप निकलते-निकलते अब निकले हैं। मैं इसे अपनी तौहीन समझता हूँ!

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