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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


दातादीन अपनी जवानी में स्वयं बड़े रसिया रह चुके थे; लेकिन अपने नेम-धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भाँति उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्व है पूजा-पाठ, कथाव्रत और चौका-चूल्हा। जब पिता-पुत्र दोनों ही मूल तत्व को पकड़े हुए हैं, तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ-भ्रष्ट कह सके। झिंगुरीसिंह ने कायल होकर कहा–मैंने तो भाई, जो सुना था, वह तुमसे कह दिया। दातादीन ने महाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों-द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किये जाने की एक लम्बी सूची पेश की और यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो सन्तान हुई, वह ब्राह्मण कहलायी और आजकल के जो ब्राह्मण हैं, वह उन्हीं सन्तानों की सन्तान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आयी है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं।

झिंगुरीसिंह उनके पाण्डित्य पर मुग्ध होकर बोले–तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी और सुकुल बने फिरते हैं?

‘समय-समय की परथा है और क्या! किसी में उतना तेज तो हो। बिस खाकर उसे पचाना तो चाहिए। वह सतजुग की बात थी, सतजुग के साथ गयी। अब तो अपना निबाह बिरादरी के साथ मिलकर रहने में है; मगर करूँ क्या, कोई लड़कीवाला आता ही नहीं। तुमसे भी कहा, औरों से भी कहा, कोई नहीं सुनता तो मैं क्या लड़की बनाऊँ?’

झिंगुरीसिंह ने डाँटा–झूठ मत बोलो पण्डित, मैं दो आदमियों को फाँस-फूँसकर लाया; मगर तुम मुँह फैलाने लगे, तो दोनों कान खड़े करके निकल भागे। आखिर किस बिरते पर हजार-पाँच सौ माँगते हो तुम? दस बीघे खेत और भीख के सिवा तुम्हारे पास और क्या है?  

दातादीन के अभिमान को चोट लगी। डाढ़ी पर हाथ फेरकर बोले–पास कुछ न सही, मैं भीख ही माँगता हूँ, लेकिन मैंने अपनी लड़कियों के ब्याह में पाँच-पाँच सौ दिये हैं; फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगूँ? किसी ने सेंत-मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होती तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात। तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसे ज़मींदारी समझता हूँ; बंकघर। ज़मींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन ज़जमानी अन्त तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू-जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और ज़जमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दो सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं-न-कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न जमींदारी में है, न साहूकारी में। और फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता है, उतना ब्राह्मन की कन्या से क्या होगा? वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगा रोटियाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। और मैं उसे रोटी के सिवा और क्या देता हूँ? बहुत हुआ, तो साल में एक धोती दे दी।

दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैरे से अनाज निकाल-निकालकर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था।

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