उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
हीरा ने चौधरी को डाँटा–तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरत जात इसी तरह बकती है। आज को तुमसे लड़ गयी, कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानस हो, हँसकर टाल गये, दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायेगी, बताओ।
इस खयाल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला–अरे हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे?
हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता; लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देखकर बोला–अब खड़े क्या ताकते हो। जाकर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पन्द्रह रुपए सैकड़े में तय है।
कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमककर उठी और अपना सिर पीटकर बोली–लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है। भाग फूट गया कि तुम-जैसी कसाई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग!
उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा–वहाँ कहाँ जाती हैं, चल कुएँ पर, नहीं खून पी जाऊँगा।
पुनिया के पाँव रुक गये। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठाकर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला। होरी ने कहा–अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है। धनिया ने द्वार पर आकर हाँक लगायी–तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमाशा देख रहे हो। कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही शिक्षा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूँघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गये। बहुरिया होकर पराये मर्दों से लड़ेगी, तो डाँटी न जायेगी। होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला–और जो मैं इसी तरह तुझे मारूँ?
‘क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है?’
‘इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती! पुनिया बड़ी गमखोर है।’
‘ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने खाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ।’
‘अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ-रूठकर नैहर भागती थी।’ जब महीनों खुशामद करता था, तब जाकर आती थी!’
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