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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


‘डर किस बात का जब तुम साथ हो।’

‘सच कहती हो?’

‘अब तक मैंने बगैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूँ।’

दोनों उस झाऊ के तख्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख्ता डगमगाता हुआ पानी में चला।

मालती ने मन को इस तख्ते से हटाने के लिए पूछा–तुम तो हमेशा शहरों में रहे, गाँव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गया? मैं तो ऐसा तख्ता कभी न बना सकती।

मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देखकर कहा–शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है; नस-नस में स्फूर्ति छा जाती है। एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनन्द का निमन्त्रण देता हुआ जान पड़ता है, मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनन्द मुझे और कहीं नहीं मिलता मालती, संगीत के रुलानेवाले स्वरों में भी नहीं, दर्शन की ऊँची उड़ानों में भी नहीं। जैसे अपने आपको पा जाता हूँ, जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाय।

तख्ता डगमगाता, कभी तिर्छा, कभी सीधा, कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था।
सहसा मालती ने कातर कंठ से पूछा–और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आती?

मेहता ने उसका हाथ पकड़कर कहा–आती हो, बार-बार आती हो, सुगन्ध के एक झोंके की तरह, कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अदृश्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बाँध लूँ; पर हाथ खुले रह जाते हैं और तुम गायब हो जाती हो।

मालती ने उन्माद की दशा में कहा–लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचा? समझना चाहा?

‘हाँ मालती, बहुत सोचा, बार-बार सोचा।’

‘तो क्या मालूम हुआ?’

‘यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूँ, वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं है, केवल एक छोटी-सी शान्त कुटिया है; लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए।

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