उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिराकर भौतिक धरातल तक पहुँचा दिया गया था, जहाँ सन्देह और ईर्ष्या और भोग का राज है, तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थी, उसे एक धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने गुरु को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर खींचे लिये जाती है और उसके देवत्व की ओर से आँखें बन्द किये लेती है, और यह देखकर उसका दिल बैठ गया।
मेहता ने कुछ लज्जित होकर कहा–आओ, कुछ देर और बैठें।
मालती बोली–नहीं, अब लौटना चाहिए। देर हो रही है।
36
राय साहब का सितारा बुलन्द था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गये थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गयी थी, मुकदमा जीत गये थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गये थे। चारों ओर से बधाइयाँ मिल रही थीं। तारों का ताँता लगा हुआ था। इस मुकदमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था; मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गयी थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। कर्ज की मात्रा बहुत बढ़ गयी थी; मगर अब राय साहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नयी मिलिकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर कर्ज़ से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊँची-से-ऊँची कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊँचे जा पहुँचे थे। अभी तक उनका बँगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसूरी और शिमला–तीनों स्थानों में एक-एक बँगला बनवाना लाजिम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जायँ, तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बँगले में ठहरें। जब सूर्यप्रतापसिंह के बँगले इन सभी स्थानों में थे, तो राय साहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बँगले न हों।
संयोग से बँगले बनवाने की जहमत न उठानी पड़ी। बने-बनाये बँगले सस्ते दामों में मिल गये। हर एक बँगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, खानसामा आदि भी रख लिये गये थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज़ मैजेस्टी के जन्म-दिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गयी। अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गयी। उस दिन खूब जशन मनाया गया और इतनी शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रेकार्ड टूट गये।
जिस वक्त हिज़ एक्सेलेंसी गवर्नर ने उन्हें पदवी प्रदान की, गर्व के साथ राज-भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन में उठी कि उनका एक-एक रोम उससे प्लावित हो उठा। यह है जीवन! नहीं, विद्रोहियों के फेर में पड़कर व्यर्थ बदनामी ली, जेल गये और अफसरों की नज़रों से गिर गये। जिस डी. एस. पी. ने उन्हें पिछली बार गिरफ़्तार किया था, इस वक्त वह उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था और शायद अपने अपराध के लिए क्षमा माँग रहा था।
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