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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन लठिया टेकते हुए आये और पोपले मुँह से बोले–कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना बड़ी सुन्दर है। होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनन्द उठाता हुआ, बड़े सम्मान से पण्डितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आँखों से देखा, सींगे देखीं, थन देखा, पुट्ठा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भरकर बोले–कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान् चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जायेंगे, ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।

होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा–सब आपका असीरबाद है, दादा! दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा–मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिये?

होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते हैं, जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग आसमान पर चढ़े। बोला–भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये, पूरे चौकस।

अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बुझी आँखों से छिपा न रह सका जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।

प्रसन्न होकर बोले–कोई हरज नहीं बेटा, कोई हरज नहीं। भगवान् सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।

धनिया ने तुरन्त टोका–अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है। दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतकर्ता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों, ‘गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मर्दों का काम है, उन्हें सीटने दो।’ फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले–बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।

धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो–लो अब तो मानोगे।

दातादीन से बोली–नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान् दें तो इसी आँगन में तीन गायें और बँध सकती हैं।

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