लोगों की राय

उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

54 पाठक हैं

‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


‘तो ब्राह्मन कैसे रहोगे?’

‘मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले वही ब्राह्मण है, जो धरम से मुँह मोड़े वही चमार है।’

सिलिया ने उसके गले में बाहें डाल दीं।

40

होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जा रही थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई; पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी; मगर अब वह उस अन्तिम दशा को पहुँच गया था, जब उसमें आत्म-विश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आँसू पुछते; मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ी, अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो; पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही होते चले गये, यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी।

हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इन तीन बीघे के किले में बन्द कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की; पर किले को हाथ से न जाने दिया; मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पण्डित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जायगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान् की इच्छा! राय साहब को क्या दोष दे? असामियों हो से उनका भी गुजर है। इसी गाँव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है; आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगा। भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता?

साँझ हो गयी थी। वह इसी चिन्ता में डूबा बैठा था कि पण्डित दातादीन ने आकर कहा–क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदखली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोल-चाल बन्द है। कुछ पता नहीं। सुना, तारीख को पन्द्रह दिन और रह गये हैं। होरी ने उनके लिए खाट डालकर कहा–वह मालिक हैं, जो चाहें करें; मेरे पास रुपए होते, तो यह दुर्दशा क्यों होती। खाया नहीं, उड़ाया नहीं; लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी, वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?

‘लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगा। बाप-दादों की इतनी ही निसानी बच रही है। वह निकल गयी, तो कहाँ रहोगे?’

‘भगवान् की मर्ज़ी है, मेरा क्या बस!’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book