उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
‘तुम राजी हो कि नहीं।’
‘जरा सोच लेने दो महाराज! आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।’
‘पाँच-छः दिन के अन्दर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाय।’
दातादीन चले गये। होरी की ओर से उन्हें कोई अन्देशा न था। अन्देशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लम्बी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़ेगी।
मगर होरी हाँ कर ले तो वह रो-धोकर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।
धनिया ने आकर पूछा–पण्डित क्यों आये थे?
‘कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी।’
‘आँसू पोंछने आये होंगे, यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें।’
‘माँगने का मुँह भी तो नहीं।’
‘तो यहाँ आते ही क्यों हैं?’
‘रुपिया की सगाई की बात थी।’
‘किससे?’
‘रामसेवक को जानती है? उन्हीं से।’
‘मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा।’
‘बूढ़ा नहीं है, हाँ अधेड़ है।’
‘तुमने पण्डित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।’
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