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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


होरी ने कहा–वह वैवाहिक-जीवन का सुख नहीं, दंड है।

धनिया तिनक उठी–तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं। अकेली बहू घर में कैसे रहेगी, न कोई आगे न कोई पीछे।

होरी बोला–तू तो इस घर में आयी तो एक नहीं, दो-दो देवर थे, सास थी, ससुर था। तूने कौन-सा सुख उठा लिया, बता।

‘क्या सभी घरों में ऐसे ही प्राणी होते हैं?’

‘और नहीं तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैं। अकेली तो बहू। उस पर हुकूमत करनेवाला सारा घर। बेचारी किस-किस को खुश करे। जिसका हुक्म न माने, वही बैरी। सबसे भला अकेला।’

फिर भी बात यहीं तक रह गयी; मगर धनिया का पल्ला हलका होता जाता था। चौथे दिन रामसेवक महतो खुद आ पहुँचे। कलाँ-रास घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक खिदमतगार, जैसे कोई बड़ा जमींदार हो। उम्र चालीस से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गये थे; पर चेहरे पर तेज था, देह गठी हुई। होरी उनके सामने बिलकुल बूढ़ा लगता था। किसी मुकदमे की पैरवी करने जा रहे थे। यहाँ जरा दोपहरी काट लेना चाहते हैं। धूप कितनी तेज है, और कितने जोरों की लू चल रही है! होरी सहुआइन की दूकान से गेहूँ का आटा और घी लाया। पूरियाँ बनीं। तीनों मेहमानों ने खाया। दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे। बातें होने लगीं।

दातादीन ने पूछा–कैसा मुकदमा है महतो?

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