उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
और होरी को तो रामसेवक पर वह विश्वास हो गया था, जो दुर्बलों को जीवटवाले आदमियों पर होता है। वह शेख चिल्ली के-से मंसूबे बाँधने लगा था। ऐसा आदमी उसका हाथ पकड़ ले, तो बेड़ा पार है।
विवाह का मुहूर्त ठीक हो गया। गोबर को भी बुलाना होगा। अपनी तरफ से लिख दो, आने न आने का उसे अख्तियार है। यह कहने को तो मुँह न रहे कि तुमने मुझे बुलाया कब था? सोना को भी बुलाना होगा।
धनिया ने कहा–गोबर तो ऐसा नहीं था, लेकिन जब झुनिया आने दे। परदेश जाकर ऐसा भूल गया कि न चिट्ठी न पत्री। न जाने कैसे हैं।–यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गयीं।
गोबर को खत मिला, तो चलने को तैयार हो गया। झुनिया को जाना अच्छा तो न लगता था; पर इस अवसर पर कुछ कह न सकी। बहन के ब्याह में भाई का न जाना कैसे सम्भव है! सोना के ब्याह में न जाने का कलंक क्या कम है?
गोबर आर्द्र कंठ से बोला–माँ बाप से खिंचे रहना कोई अच्छी बात नहीं है। अब हमारे हाथ-पाँव हैं, उनसे खिंच लें, चाहे लड़ लें; लेकिन जन्म तो उन्हीं ने दिया, पाल-पोसकर जवान तो उन्हीं ने किया, अब वह हमें चार बात भी कहें, तो हमें गम खाना चाहिए। इधर मुझे बार-बार अम्माँ-दादा की याद आया करती है। उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर गुस्सा आ गया। तेरे कारन माँ-बाप को भी छोड़ना पड़ा।
झुनिया तिनक उठी–मेरे सिर पर यह पाप न लगाओ, हाँ! तुम्हीं को लड़ने की सूझी थी। मैं तो अम्माँ के पास इतने दिन रही, कभी साँस तक न लिया।
‘लड़ाई तेरे कारन हुई।’
‘अच्छा मेरे ही कारन सही। मैंने भी तो तुम्हारे लिए अपना घर-बार छोड़ दिया।’
‘तेरे घर में कौन तुझे प्यार करता था। भाई बिगड़ते थे, भावजें जलाती थीं। भोला जो तुझे पा जाते तो कच्चा ही खा जाते।’
‘तुम्हारे ही कारन।’
‘अबकी जब तक रहें, इस तरह रहें कि उन्हें भी जिन्दगानी का कुछ सुख मिले। उनकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करें। दादा इतने अच्छे हैं कि कभी मुझे डाँटा तक नहीं। अम्माँ ने कई बार मारा है; लेकिन वह जब मारती थीं, तब कुछ-न कुछ खाने को दे देती थीं। मारती थीं; पर जब तक मुझे हँसा न लें, उन्हें चैन न आता था।’
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