उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
‘नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।’
‘मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।’
‘तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे चले।’
‘मुदा यह गाय तो लेते जाओ।’
‘अभी नहीं दादा, फिर ले लूँगा।’
‘तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना।’
होरी ने दुःखित स्वर में कहा–दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ, तो तुम मुझसे दाम माँगोगे?
‘लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीं ?’
‘भगवान् कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। असाढ़ सिर पर है। कड़वी बो लूँगा।’
‘मगर यह गाय तुम्हारी हो गयी। जिस दिन इच्छा हो आकर ले जाना।’
‘किसी भाई का निलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है।’
होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह खुशी से गाय लेकर घर की राह लेता। भोला जब नकद रुपए नहीं माँगता तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है; लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाता वही दसा होरी की थी। संकट की चीज लेना पाप है, यह बात जन्म-जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी।
भोला ने गद्गद कंठ से कहा–तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?
होरी ने जवाब दिया–अभी मैं राय साहब की डयोढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर में लौटूँगा, तभी किसी को भेजना।
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