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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


खन्ना ने कहा–आखिर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे?

मेहता ने जवाब दिया–भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर हम जिन्दा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकायँगी और हम लोग खायँगे। देहातों में हाँडियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।

मालती ने गिला किया–क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी कलाई इतने ज़ोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।

‘काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा।’

मिर्ज़ा खुर्शेद बोले–अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इन्तजाम कर दूँगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँडी और बर्तन ढूँढ़ना हिमाकत है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए, और वहीं दरख़्त के साये में खर्राटे लीजिए।

यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी खुद राय साहब। कोई बीस-पचीस मील पर पहाड़ी प्रान्त शुरू हो गया। दोनों तरफ ऊँची पर्वतमाला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नजर आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पन्द कगार पर एक घने वटवृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गयीं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने और शिकार खेलकर बारह बजे तक यहाँ आ जाय। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गयीं। खन्ना मन में ऐंठकर रह गये। जिस विचार से आये थे, उसमें जैसे पंचर हो गया; अगर जानते, मालती दगा देगी, तो घर लौट जाते; लेकिन राय साहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बात करनी थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहो। उनकी टोली बनी-बनायी थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ चल दीं।

कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा–तुम तो चले ही जाते हो। जरा दम ले लेने दो। मेहता मुस्कराये–अभी तो हम एक मील भी नहीं आये। अभी से थक गयीं?

‘थकी नहीं; लेकिन क्यों न ज़रा दम ले लो।’

‘जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय, हमें आराम करने का अधिकार नहीं।’

‘मैं शिकार खेलने न आयी थी।’

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