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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


‘लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते हैं, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?’

‘उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं–आदमी को अन्त तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातन्त्र्य उनके उपदेशों का तत्व है।’

‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातन्त्र्य का आशय क्या है?’

‘समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आता, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुन्दर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।’

‘मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं?’

‘आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलता...

वाक्य पूरा न हुआ था कि वह सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुनकर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से राय साहब के पीछे आ गये। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मन्द गति से सामने की ओर चला।

राय साहब ने बन्दूक उठायी और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा–यह क्या करते हैं आप? ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं। कहीं लौट पड़े तो?

‘लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।’

‘तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूँ।’

‘तब क्या शिकार खेलने चले थे?’

‘शामत और क्या।’

राय साहब ने बन्दूक नीचे कर ली।’

‘बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।’

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