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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतरकर मिर्ज़ाजी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कम्पन हो रहा था और आँखें पथरा गयी थीं।

लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा–अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठाकर पहुँचा दूँ?

मिर्ज़ा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था; मगर अब निस्पन्द पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनन्द था, वह क्या इस निर्जीव शव में है?  कितनी सुन्दर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि? उसकी छलाँगें हृदय में आनन्द की तरंगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगन्ध बिखेरता है; लेकिन अब! उसे देखकर ग्लानि होती है।

लकड़हारे ने पूछा–कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना।

मिर्ज़ाजी जैसे ध्यान से चौक पड़े। बोले–अच्छा उठा ले। कहाँ चलेगा?

‘जहाँ हुकुम हो मालिक।’

‘नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ।’

लकड़हारे ने मिर्ज़ा की ओर कुतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया।’

‘अरे नहीं मालिक, हुजूर ने शिकार किया हैं तो हम कैसे खा लें।’

‘नहीं-नहीं मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?’

‘कोई आधा कोस होगा मालिक!’

‘तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।’

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