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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


बच्चा बढ़ने लगा। अक़्ल और ज़हानत में, हिम्मत और ताक़त में, वह अपनी दुगनी उमर के बच्चों से बढ़कर था। सुबह होते ही ग़रीब रिन्दा बच्चे का बनाव-सिंगार करके और उसे नाश्ता खिलाकर अपने काम-धन्धे में लग जाती थी और शाह साहब बच्चे की उँगली पकड़ कर उसे आबादी से दूर चट्टानों पर ले जाते। वहाँ कभी उसे पढ़ाते, कभी हथियार चलाने की मश्क़ कराते और कभी उसे शाही क़ायदे समझाते। बच्चा था तो कमसिन, मगर इन बातों में ऐसा जी लगाता और ऐसे चाव से लगा रहता गोया उसे अपने वंश का हाल मालूम है। मिज़ाज भी बादशाहों जैसा था। गाँव का एक-एक लड़का उसके हुक्म का फ़रमाबरदार था। माँ उस पर गर्व करती, बाप फूला न समाता और सारे गाँव के लोग समझते कि यह शाह साहब के जप-तप का असर है।

बच्चा मसऊद देखते-देखते एक सात साल का नौजवान शहजादा हो गया। देखकर देखनेवाले के दिल को एक नशा-सा होता था। एक रोज़ शाम का वक़्त था, शाह साहब अकेले सैर करने गये और जब लौटे तो उनके सर पर एक जड़ाऊ ताज शोभा दे रहा था। रिन्दा उनका यह हुलिया देखकर सहम गयी और मुँह से कुछ बोल न सकी। तब उन्होंने नौजवान मसऊद को गले से लगाया, उसी वक़्त उसे नहलाया-धुलाया और एक चट्टान के तख़्त पर बैठाकर दर्द-भरे लहजे में बोले, मसऊद, मैं आज तुमसे रुखसत होता हूँ तुम्हारी अमानत तुम्हें सौंपता हूँ। यह उसी मुल्के जन्नतनिशाँ का ताज है। कोई वह ज़माना था, कि यह ताज तुम्हारे बदनसीब बाप के सर पर ज़ेब देता था, अब वह तुम्हें मुबारक हो। रिन्दा! प्यारी बीबी! तेरा बदक़िस्मत शौहर किसी ज़माने में इस मुल्क़ का बादशाह था और तू उसकी मलिका है। मैंने यह राज तुम से अब तक छिपाया था मगर हमारे अलग होने का वक़्त बहुत पास है। अब छिपाकर क्या करूँ। मसऊद, तुम अभी बच्चे हो, मगर दिलेर और समझदार हो। मुझे यक़ीन है कि तुम अपने बूढ़े बाप की आख़िरी वसीयत पर ध्यान दोगे और उस पर अमल करने की कोशिश करोगे। यह मुल्क़ तुम्हारा है, यह ताज तुम्हारा है और यह रिआया तुम्हारी है। तुम इन्हें अपने कब्जे में लाने की मरते दम तक कोशिश करते रहना और अगर तुम्हारी कोशिशें नाकाम हो जायें और तुम्हें भी यही बेसरोसामानी की मौत नसीब हो तो यही वसीयत तुम अपने बेटे को कर देना और यह ताज जो उसकी अमानत होगी उसके सुपुर्द करना। मुझे तुमसे और कुछ नहीं कहना है, खुदा तुम दोनों को खुशोखुर्रम रक्खे और तुम्हें मुराद को पहुँचाये।

यह कहते-कहते शाह साहब की आँखें बन्द हो गयीं। रिन्दा दौड़कर उनके पैरों से लिपट गयी और मसऊद रोने लगा। दूसरे दिन सुबह को गाँव के लोग जमा हुए और एक पहाड़ी गुफ़ा की गोद में लाश रख दी।

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