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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


मसऊद ने फ़कीरों का भेष अख़्तियार किया, सर पर लोहे की टोपी के बजाय लम्बी जटाएँ बनायीं, जिस्म पर ज़िरहबख़्तर के बजाए गेरुए रंग का ताना सजा, हाथ में तलवार के बजाय फ़क़ीरों का प्याला लिया। जंग के नारे के बजाय फ़क़ीरों की सदा बुलन्द की और अपना नाम शेख़ मख़मूर रख दिया। मगर यह जोग़ी दूसरे जोगियों की तरह धूनी रमाकर न बैठा और न उस तरह का प्रचार शुरू किया। वह दुश्मन की फ़ौज में जाता और सिपाहियों की बातें सुनता। कभी उनकी मोर्चेबन्दियों पर निगाह दौड़ाता, कभी उनके दमदमों और क़िले की दीवारों का मुआइना करता। तीन बार सरदार नमकख़ोर दुश्मन के पंजे से ऐसे वक़्त निकले जब कि उन्हें जान बचाने की कोई आस न रही थी। और यह सब शेख़ मख़मूर की करामात थी। मिनक़ाद का क़िला जीतना कोई आसान बात न थी। पाँच हज़ार बहादुर सिपाही उसकी हिफ़ाजत के लिए कुर्बान होने को तैयार बैठे थे। तीस तोपें आग के गोले उगलने के लिए मुँह खोले हुए थीं और दो हज़ार सधे हुए तीरन्दाज हाथों में मौत का पैग़ाम लिये हुक्म का इन्तज़ार कर रहे थे। मगर जिस वक़्त सरदार नमकख़ोर अपने दो हज़ार बहादुरों के साथ इस क़िले पर चढ़ा तो पाँचों हज़ार दुश्मन सिपाही काठ के पुतले बन गये। तोपों के मुँह बन्द हो गये और तीरन्दाजों के तीर हवा में उड़ने लगे। और यह सब शेख मख़मूर की करामात थी। शाह साहब वहीं मौज़ूद थे सरदार दौड़कर उनके क़दमों पर गिर पड़ा और उनके पैरों की धूल माथे पर लगायी।

किशवरकुशा दोयम का दरबार सजा हुआ है। अंगूरी शराब का दौर चल रहा है और सरदार के बड़े-बड़े अमीर और रईस अपने-अपने दर्ज़े से हिसाब के अदब के साथ घुटना मोड़े बैठे हैं। यकायक भेदियों ने ख़बर दी कि मीरशुजा की हार हुई और जान से मारे गये। यह सुनकर किशवरकुशा के चेहरे पर चिन्ता के लक्षण दिखायी पड़े। सरदारों को सम्बोधित करके बोले—आप लोगों में ऐसा दिलेर कौन है जो इस बदमाश सरदार का सर कलम करके हमारे सामने पेश करे। इसकी गुस्ताखियाँ अब हद से आगे बढ़ी जाती हैं। आप ही लोगों के बड़े-बूढ़ों ने यह मुल्क़ तलवार के ज़ोर से मुरादिया ख़ानदान से छीना था। क्या आप उन्हीं पुरखों की औलाद नहीं हैं? यह सुनते ही सरदारों में एक सन्नाटा छा गया, सब के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं और किसी की हिम्मत न पड़ी कि बादशाह की दावत क़बूल करे। आख़िरकार शाह किशवरकुशा के बुड्ढे चचा ख़ुद उठे और बोले—ऐ शाहे जवाँबख्त! मैं तेरी दावत क़बूल करता हूँ, अगरचे मैं बुड्ढा हो गया हूँ और बाजुओं में तलवार पकड़ने की ताक़त बाक़ी नहीं रही, मगर मेरे खून में वही गर्मी और दिल में वही जोश है जिनकी बदौलत हमने यह मुल्क़ शाह बामुराद से लिया था। या तो मैं इस नापाक कुत्ते की हस्ती ख़ाक में मिला दूँगा या इस कोशिश में अपनी जान निसार कर दूँगा, ताकि अपनी आँखों से सल्तनत की बर्बादी न देखूँ। यह कहकर अमीर पुरतदबीर वहाँ से उठा और मुस्तैदी से जंगी तैयारियों में लग गया। उसे मालूम था कि यह आख़िरी मुक़ाबिला है और अगर इसमें नाकाम रहे तो मरने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। उधर नमकख़ोर धीरे-धीरे राजधानी की तरफ़ बढ़ता आता था, यकायक उसे ख़बर मिली कि अमीर पुरतदबीर बीस हज़ार पैदल और सवारों के साथ मुक़ाबिले के लिए आ रहा है।

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