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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


कैसी सुरीली तान थी, कैसी मीठी आवाज़, कैसा बेचैन करने वाला भाव! उसके गले में वह रस था जिसका बयान नहीं हो सकता। मैंने देखा कि गाते-गाते खुद उसकी आँखों में आँसू भर आये। मुझ पर इस वक़्त एक मोहक सपने की-सी दशा छायी हुई थी। एक बहुत मीठा, नाजुक, दर्दनाक असर, दिल पर हो रहा था जिसका बयान नहीं किया जा सकता। एक हरे-भरे मैदान का नक्शा आँखों के सामने खिंच गया और लीला, प्यारी लीला, उस मैदान पर बैठी हुई मेरी तरफ़ हसरतनाक आँख़ों से ताक रही थी। मैंने एक लम्बी आह भरी और बिना कुछ कहे उठ खड़ा हुआ। इस वक़्त मेहर सिंह ने मेरी तरफ़ ताका, उसकी आँखों में मोती के कतरे डबडबाये हुए थे और बोला कभी-कभी तशरीफ़ लाया कीजिएगा।

मैंने सिर्फ इतना जवाब दिया—मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ।

धीरे-धीरे मेरी यह हालत हो गयी कि जब तक मेहर सिंह के यहाँ जाकर दो-चार गाने न सुन लूँ जी को चैन न आता। शाम हुई और मैं जा पहुँचा। कुछ देर तक गानों की बहार लूटता और तब उसे पढ़ाता। ऐसा ज़हीन और समझदार लड़के को पढ़ाने में मुझे ख़ास मज़ा आता था। मालूम होता था कि मेरी एक-एक बात उसके दिल पर नक़्श रही है। जब तक पढ़ाता वह पूरे जी-जान से कान लगाये बैठा रहता। जब उसे देखता, पढ़ने-लिखने में डूबा हुआ पाता साल भर में अपने भगवान के दिये हुए जेहन की बदौलत उसने अंग्रेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। मामूली चिट्ठियाँ लिखने लगा और दूसरा साल गुज़रते-गुज़रते वह अपने स्कूल के कुल छात्रों से बाजी ले गया। जितने मुर्दिस थे, सब उसकी अक्ल पर हैरत करते और सीधा नेक-चलन ऐसा कि कभी झूठ-मूठ भी किसी ने उसकी शिकायत नहीं की। वह अपने सारे स्कूल की उम्मीद और रौनक़ था लेकिन बावजूद सिख होने के उसे खेल-कूद में रुचि न थी। मैंने उसे कभी क्रिकेट में नहीं देखा। शाम होते ही सीधे घर चला आता और लिखने-पढ़ने में लग जाता।

मैं धीरे-धीरे उससे इतना हिल-मिल गया कि बजाय शिष्य के उसको अपना दोस्त समझने लगा। उम्र के लिहाज से उसकी समझ आश्चर्यजनक थी। देखने में १६-१७ साल से ज़्यादा न मालूम होता मगर जब कभी मैं रवानी में आकर दुर्बोध कवि-कल्पनाओं और कोमल भावों की उसके सामने व्याख्या करता तो मुझे उसकी भंगिमा से ऐसा मालूम होता कि एक-एक बारीकी को समझ रहा है। एक दिन मैंने उससे पूछा—मेहर सिंह, तुम्हारी शादी हो गयी।

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