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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


प्रकाश ने अधीर होकर पूछा–अम्माँ कहाँ चली गई थीं?  बहुत देर लगायी?

करुणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया–एक काम से गयी थी। देर हो गयी।

यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बंद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त ही लिफाफा खोलकर पढ़ा। हलकी लालिमा चेहरे पर दौड़ गयी। पूछा–यह तुम्हें कहाँ मिल गया अम्माँ?

करुणा–तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लायी हूँ।

‘क्या तुम वहाँ चली गई थीं?’

‘और क्या करती।’

‘कल तो गाड़ी का समय न था?’

‘मोटर ले ली थी।’

प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा, फिर कुंठित स्वर में बोला–जब तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मुझे क्यों भेज रही हो?

करुणा ने विरक्त भाव से कहा–इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलिन वेष नहीं देखा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम्हारी हित कामना पर अर्पित कर दिये; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है।

करुणा का कंठ रुँध गया और कुछ न कह सकी।

प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारियाँ करने लगा। करुणा के पास जो कुछ था, वह सब खर्च हो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नए सूट बने, सूटकेस लिये गये। प्रकाश अपनी धुन में मस्त था। कभी किसी चीज़ की फरमाइश लेकर
आता, कभी किसी चीज़ की।

करुणा इस एक सप्ताह में इतनी दुर्बल हो गयी है, उसके बालों पर कितनी सफेदी आ गयी है, चेहरे पर कितनी झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, यह उसे कुछ न नज़र आता। उसकी आँखों में इंगलैंड के दृश्य समाये हुए थे। महत्त्वाकांक्षा आँखों पर परदा डाल देती है।

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