कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…
उमानाथ ने बड़े भाई को डॉँटा, आप ख़ामख्वाह अम्माँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। यह कायदा-क़ानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती हैं।
फूलमती ने संयमित स्वर में कहा–अच्छा, क्या क़ानून है, जरा मैं भी सुनूँ।
उमा ने निरीह भाव से कहा–क़ानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। माँ का हक केवल रोटी कपड़े का है!
फूलमती ने तड़प कर पूछा–किसने यह क़ानून बनाया है?
उमा शांत स्थिर स्वर में बोला–हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?
फूलमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोली–तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?
उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा–तुम जैसा समझो।
फूलमती की संपूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई चिनगारियों की भाँति यह शब्द निकल पड़े–मैंने घर बनवाया, मैंने सम्पत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में ग़ैर हूँ? मनु का यही क़ानून है? और तुम उसी क़ानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहता स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे अन्धेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छाँह में खड़ी हो सकती; अगर यही क़ानून है, तो इसमें आग लग जाय।
चारों युवकों पर माता के इस क्रोध और आंतक का कोई असर न हुआ। क़ानून का फ़ौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन काँटों का उन पर क्या असर हो सकता था?
जरा देर में फूलमती उठ कर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य मग्न मातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आज उसे अग्निकुंड-सा जान पड़ा, जिसमें उसका जीवन जल कर भस्म हो रहा था।
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