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ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

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उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


एक दिन प्रेमसिंह बाज़ार गया हुआ था। रास्ते मंं उसने देखा कि एक घर में आग लगी हुई है। आग के ऊँचे-ऊँचे डरावने शोले हवा में अपने झण्डे लहरा रहे हैं और एक औरत दरवाज़े पर खड़ी सर पीट-पीटकर रो रही है। यह बेचारी विधवा स्त्री थी, उसका बच्चा अन्दर सो रहा था कि घर में आग लग गयी। वह दौड़ी थी कि गाँव के आदमियों को आग बुझाने के लिए बुलाये कि इतने में आग ने ज़ोर पकड़ लिया और अब तमाम जलते हुए शोलों का उमड़ा हुआ दरिया उसे उसके प्यारे बच्चे से अलग किये हुए था। प्रेमसिंह के दिल में उस औरत की दर्दनाक आहें चुभ गयीं। वह बेधड़क आग में घुस गया और सोते हुए बच्चे को गोद में लेकर बाहर निकल आया। विधवा स्त्री ने बच्चे को गोद में ले लिया और उसके कोमल गालों को बार-बार चूमकर आँखों में आँसू भर लायी और बोली—महाराज, तुम जो कोई हो, मैं आज अपना प्यारा बच्चा तुम्हें भेंट करती हूँ। तुम्हें ईश्वर ने और भी लड़के दिये होंगे, उन्हीं के साथ इस अनाथ की भी ख़बर लेते रहना। तुम्हारे दिल में दया है, मेरा सब कुछ अग्नि देवी ने ले लिया, अब इस तन के कपड़े के सिवा मेरे पास और कोई चीज़ नहीं। मैं मज़दूरी करके अपना पेट पाल लूँगी। यह बच्चा अब तुम्हारा है।

प्रेमसिंह की आँखें डबडबा गयीं, बोला—बेटी, ऐसा न कहो, तुम मेरे घर चलो और ईश्वर ने जो कुछ रूखा-सूखा दिया है, वह खाओ। मैं भी दुनिया में बिलकुल अकेला हूँ, कोई पानी देनेवाला नहीं है। क्या जाने परमात्मा ने इसी बहाने हम लोगों को मिलाया हो। शाम के वक़्त जब प्रेमसिंह घर लौटा तो उसकी गोद में एक हँसता हुआ फूल सा बच्चा था और पीछे-पीछे एक पीली और मुरझायी हुई औरत। आज प्रेमसिंह का घर आबाद हुआ। आज से उसे किसी ने शाम के वक़्त नदी के किनारे खामोश बैठे नहीं देखा।

इसी बच्चे के लिए साँप का मणि लाने का निश्चय करके प्रेमसिंह आधी रात के वक़्त कमर से तलवार लगाये, चौंक-चौंककर क़दम रखता, बरगद के पेड़ की तरफ़ चला।

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