लोगों की राय

कहानी संग्रह >> ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

ग्राम्य जीवन की कहानियाँ (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8459
आईएसबीएन :978-1-61301-068

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं

उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, मगर…


मगर हेमवती ने अपना फ़ैसला बहाल रक्खा—अब मैं न जाऊँगी। तुम्हारी बातें गिरह में बाँध लीं।

दूसरे दिन शाम को अक्षयकुमार हवाख़ोरी को निकले। आनन्दबाग उस वक़्त जोबन पर था। ऊँचे-ऊँचे सरो और अशोक की क़तारों के बीच, लाल बजरी से सजी हुई सड़क ऐसी ख़ूबसूरत मालूम होती थी कि जैसे कमल के पत्तों में फूल खिला हुआ है या नोकदार पलकों के बीच में लाल मतवाली आँखें ज़ेब दे रही हैं। बाबू अक्षयकुमार इस क्यारी पर हवा के हल्के-फुल्के ताजगी देनेवाले झोंकों का मज़ा उठाते हुए एक सायेदार कुंज में जा बैठे। यह उनकी ख़ास जगह थी। इस इनायतों की बस्ती में आकर थोड़ी देर के लिए उनके दिल पर फूलों के खिलेपन और पत्तों की हरियाली का बहुत ही नशीला असर होता था। थोड़ी देर के लिए उनका दिल भी फूल की तरह खिल जाता था। यहाँ बैठे उन्हें थोड़ी ही देर हुई थी कि उन्हें एक बूढ़ा आदमी अपनी तरफ़ आता हुआ दिखायी दिया। उसने सलाम किया और एक मोहरदार बन्द लिफ़ाफ़ा देकर गायब हो गया। अक्षय बाबू ने लिफ़ाफ़ा खोला और उसकी अम्बरी महक से रुह फड़क उठी। ख़त का मजमून यह था—

‘मेरे प्यारे अक्षय बाबू, आप इस नाचीज के ख़त को पढ़कर बहुत हैरत में आएँगे, मगर मुझे आशा है कि आप मेरी इस ढिठाई को माफ़ करेंगे। आपके आचार-विचार, आपकी सुरुचि और आपके रहन-सहन की तारीफ़ें सुन-सुनकर मेरे दिल में आपके लिए एक प्रेम और आदर का भाव पैदा हो गया है। आपके सादे रहन-सहन ने मुझे मोहित कर लिया है। अगर हया-शर्म मेरा दामन न पकड़े होती तो मैं अपनी भावनाओं को और भी स्पष्ट शब्दों में प्रकाशित करती। साल भर हुआ कि मैंने सामान्य पुरुषों की दुर्बलताओं से निराश होकर यह इरादा कर लिया था कि शेष जीवन खुशियों के सपना देखने में काटूँगी। मैंने ढूँढा मगर जिस दिल की तलाश थी, न मिला। लेकिन जब से मैंने आपको देखा है, मुद्दतों की सोयी हुई उमंगें जाग उठी हैं। आपके चेहरे पर सुन्दरता और जवानी की रोशनी न सही मगर कल्पना की झलक मौजूद है, जिसकी मेरी निगाह में ज़्यादा इज्ज़त है। हालाँकि मेरा ख़याल है कि अगर आपको अपने बहिरंग की चिन्ता होती तो शायद मेरे अस्तित्व का दुर्बल अंश ज़्यादा प्रसन्न होता। मगर मैं रुप की भूखी नहीं हूँ। मुझे एक सच्चे, प्रदर्शन से मुक्त, सीने में दिल रखनेवाले इन्सान की चाह है और मैंने उसे पा लिया। मैंने एक चतुर पनडुब्बे की तरह समुन्दर की तह में बैठकर उस रतन को ढूंढ़ निकाला है, मेरी आपसे केवल यह प्रार्थना है कि आप कल रात को डाक्टर किचलू के मकान पर तशरीफ़ लायें। मैं आपका बहुत एहसान मानूँगी। वहाँ एक हरे कपड़े पहने स्त्री अशोकों के कुंज में आपके लिए आँखें बिछाये बैठी नज़र आयेगी।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book