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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


हरिदास अपने मुहर्रिर को कुछ खतों का मसौदा लिखा रहा था कि बूढ़े लाला जी लाठी टेकते हुए कारखाने में दाख़िल हुए। हरिदास फौरन उठ खड़ा हुआ और उन्हें हाथों से सहारा देते हुए बोला—‘आपने कहला क्यों न भेजा कि मैं आना चाहता हूँ, पालकी मँगवा देता। आपको बहुत तकलीफ़ हुई।’ यह कहकर उसने एक आराम-कुर्सी बैठने के लिए खिसका दी। कारखाने के कर्मचारी दौड़े और उनके चारों तरफ़ बहुत अदब के साथ खड़े हो गये। हरनामदास कुर्सी पर बैठ गये और बोरों के छत चूमनेवाले ढेर पर नज़र दौड़ाकर बोले—मालूम होता है दीनानाथ सच कहता था। मुझे यहाँ कई नयी सूरतें नज़र आती हैं। भला कितना काम रोज़ होता है?

हरिदास—आजकल काम ज़्यादा आ गया था इसलिए कोई पाँच सौ मन रोजाना तैयार हो जाता था लेकिन औसत ढाई सौ मन का रहेगा। मुझे नयी मशीन की कीमत अदा करनी थी इसलिए अक्सर रात को भी काम होता है।

हरनामदास—कुछ क़र्ज लेना पड़ा?

हरिदास—एक कौड़ी नहीं। सिर्फ़ मशीन की आधी कीमत बाकी है।

हरनामदास के चेहरे पर इत्मीनान का रंग नज़र आया। संदेह ने विश्वास को जगह दी। प्यार-भरी आँखों से लड़के की तरफ़ देखा और करुण स्वर में बोले—बेटा, मैंने तुम्हार ऊपर बड़ा जुल्म किया, मुझे माफ़ करो। मुझे आदमियों की पहचान पर बड़ा घमण्ड था, लेकिन मुझे बहुत धोखा हुआ। मुझे अब से बहुत पहले इस काम से हाथ खींच लेना चाहिए था। मैंने तुम्हें बहुत नुकसान पहुँचाया। यह बीमारी बड़ी मुबारक है जिसने तुम्हारी परख का मौका दिया और तुम्हें लियाकत दिखाने का। काश, यह हमला पाँच साल पहले ही हुआ होता। ईश्वर तुम्हें खुश रखे और हमेशा उन्नति दे, यही तुम्हारे बूढ़े बाप का आशीर्वाद है।

—‘प्रेम बत्तीसी’ से
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