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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


क़ासिम दबे पाँव शहजादी के खेमे के पास आया, हालाँकि दबे पाँव आने की ज़रूरत न थी। उस सन्नाटे में वह दौड़ता हुआ चलता तो भी किसी को ख़बर न होती। उसने ख़ेमे से कान लगाकर सुना, किसी की आहट न मिली। इत्मीनान हो गया। तब उसने कमर से चाकू निकाला और काँपते हुए हाथों से खेमे की दो-तीन रस्सियां काट डालीं। अन्दर जाने का रास्ता निकल आया। उसने अन्दर की तरफ़ झाँका। एक दीपक जल रहा था। दो बांदियां फ़र्श पर लेटी हुई थीं और शहजादी एक मख़मली गद्दे पर सो रही थी। क़ासिम की हिम्मत बढ़ी। वह सरककर अन्दर चला गया, और दबे पाँव शहजादी के क़रीब जाकर उसके दिलफ़रेब हुस्न का अमृत पीने लगा। उसे अब वह भय न था जो ख़ेमे में आते वक़्त हुआ था। उसने ज़रूरत पड़ने पर अपनी भागने की राह सोच ली थी। क़ासिम एक मिनट तक मूरत की तरह खड़ा शहजादी को देखता रहा। काली-काली लटें खुलकर उसके गालों को छिपाये हुए थी। गोया काले-काले अक्षरों में एक चमकता हुआ शायराना ख़याल छिपा हुआ था। मिट्टी की इस दुनिया में यह मज़ा, यह घुलावट, वह दीप्ति कहाँ? क़ासिम की आँखें इस दृश्य के नशे में चूर हो गयीं। उसके दिल पर एक उमंग बढ़ाने वाला उन्माद सा छा गया, जो नतीजों से नहीं डरता था। उत्कण्ठा ने इच्छा का रूप धारण किया। उत्कण्ठा में अधीरता थी और आवेश, इच्छा में एक उन्माद और पीड़ा का आनन्द। उसके दिल में इस सुन्दरी के पैरों पर सर मलने की, उसके सामने रोने की, उसके क़दमों पर जान दे देने की, प्रेम का निवेदन करने की, अपने ग़म का बयान करने की एक लहर-सी उठने लगी वह वासना के भँवर में पड़ गया।

क़ासिम आध घंटे तक उस रूप की रानी के पैरों के पास सर झुकाये सोचता रहा कि उसे कैसे जगाऊँ। ज्यों ही वह करवट बदलती वह डर के मारे थरथरा जाता। वह बहादुरी जिसने मुलतान को जीता था, उसका साथ छोड़े देती थी।

एकाएक कसिम की निगाह एक सुनहरे गुलाबपोश पर पड़ी जो करीब ही एक चौकी पर रखा हुआ था। उसने गुलाबपोश उठा लिया और खड़ा सोचता रहा कि शहजादी को जगाऊँ या न जगाऊँ? सोने की डली पड़ी हुई देखकर हमें उसके उठाने में आगा-पीछा होता है, वही इस वक़्त उसे हो रहा था। आख़िरकार उसने कलेजा मजबूत करके शहजादी के कान्तिमान मुखमण्डल पर गुलाब के कई छींटे दिये। दीपक मोतियों की लड़ी से सज उठा।

शहजादी ने चौंकर आँखें खोलीं और क़ासिम को सामने खड़ा देखकर फौरन मुँह पर नक़ाब खींच लिया और धीरे से बोली—मसरूर।

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