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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


क़ासिम पर एक बेसुधी की-सी हालत छा गयी। जैसे आत्मा का गीत सुनने के बाद किसी योगी की होती है। उसे सपने में भी जो उम्मीद न हो सकती थी, वह पूरी हो गयी थी। गर्व से उसकी गर्दन की रगें तन गयीं, उसे मालूम हुआ कि दुनिया में मुझसे ज़्यादा भाग्यशाली दूसरा नहीं है। मैं चाहूँ तो इस रूप की वाटिका की बहार लूट सकता हूँ, इस प्याले से मस्त हो सकता हूँ। आह वह कितनी नशीली, कितनी मुबारक ज़िन्दगी होगी! अब तक क़ासिम की मुहब्बत ग्वाले का दूध थी, पानी से मिली हुई; शहजादी के दिल की तड़प ने पानी को जलाकर सच्चाई का रंग पैदा कर दिया। उसके दिल ने कहा—मैं इस रूप की रानी के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता? कोई ऐसी मुसीबत नहीं है जो झेल न सकूँ, कोई ऐसी आग नहीं, जिसमें कूद न सकूँ, मुझे किसका डर है! बादशाह का? मैं बादशाह का गुलाम नहीं, उसके सामने हाथ फैलानेवाला नहीं, उसका मोहताज नहीं। मेरे जौहर की हर एक दरबार में क़द्र हो सकती है। मैं आज इस गुलामी की जंजीर को तोड़ डालूँगा और उस देश में जा बसूँगा, जहाँ बादशाह के फ़रिश्ते भी पर नहीं मार सकते। हुस्न की नेमत पाकर अब मुझे और किसी चीज की इच्छा नहीं। अब अपनी आरजुओं का क्यों गला घोटूँ? कामनाओं को क्यों निराशा का ग्रास बनने दूँ? उसने उन्माद की-सी स्थिति में कमर से तलवार निकाली और जोश के साथ बोला—जब तक मेरे बाजुओं में दम है, कोई आपकी तरफ़ आँख उठाकर देख भी नहीं सकता। चाहे वह दिल्ली का बादशाह ही क्यों न हो! मैं दिल्ली के कूचे और बाजार में ख़ून की नदी बहा दूँगा, सल्तनत की जड़े हिला दूँगा, शाही तख्त को उल्ट-पलट रख दूँगा, और कुछ न कर सकूँगा तो मर मिटूँगा। पर अपनी आँखों से आपकी याह ज़िल्लत न देखूँगा।

शहज़ादी आहिस्ता-आहिस्ता उसके क़रीब आयी बोली—मुझे आप पर पूरा भरोसा है, लेकिन आपको मेरी ख़ातिर से ज़ब्त और सब्र करना होगा। आपके लिए मैं महलसरा की तकलीफ़ें और जुल्म सब सह लूँगी। आपकी मुहब्बत ही मेरी ज़िन्दगी का सहारा होगी। यह यक़ीन कि आप मुझे अपनी लौंडी समझते हैं, मुझे हमेशा सम्हालता रहेगा। कौन जाने तक़दीर हमें फिर मिलाये।

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