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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


लेकिन क़ासिम अब भी वहाँ से न हिला। उसकी आरजूएँ उम्मीद से बढ़कर पूरी होती जाती थीं, फिर हवस भी उसी अन्दाज़ से बढ़ती जाती थी। उसने सोचा अगर हमारी मुहब्बत की बहार सिर्फ़ कुछ लमहों की मेहमान है, तो फिर उन मुबारकबाद लमहों को आगे की चिन्ता से क्यों बेमजा करें। अगर तक़दीर में इस हुस्न की नेमत को पाना नहीं लिखा है, तो इस मौक़े को हाथ से क्यों जाने दूँ। कौन जाने फिर मुलाकात हो या न हो? यह मुहब्बत रहे या न रहे? बोला—शहजादी, अगर आपका यही आख़िरी फ़ैसला है, तो मेरे लिए सिवाय हसरत और मायूसी के और क्या चारा है? दुख होगा, कुढूँगा, पर सब्र करूंगा। अब एक दम के लिए यहाँ आकर मेरे पहलू में बैठ जाइए ताकि इस बेकरार दिल को तस्कीन हो। आइए, एक लम्हे के लिए भूल जाएँ कि जुदाई की घड़ी हमारे सर पर खड़ी है। कौन जाने यह दिन कब आयें? शान-शौकत ग़रीबों की याद भुला देती है, आइए एक घड़ी मिलकर बैठें। अपनी जुल्फ़ों की अम्बरी खुशबू से इस जलती हुई रूह को तरावट पहुँचाइए। यह बांहें, गलों की जंजीरे बने जाएँ। अपने बिल्लौर जैसे हाथों से प्रेम के प्याले भर-भरकर पिलाइए। साग़र के ऐसे दौर चलें कि हम छक जाएँ! दिलों पर सुरूर को ऐसा गाढ़ा रंग चढ़े जिस पर जुदाई की तुर्शियों का असर न हो। वह रंगीन शराब पिलाइए जो इस झुलसी हुई आरजूओं की खेती को सींच दे और यह रूह की प्यास हमेशा के लिए बुझ जाए।

मए अग़वानी के दौर चलने लगे। शहजादी की बिल्लौरी हथेली में सुर्ख शराब का प्याला ऐसा मालूम होता था जैसे पानी की बिल्लौरी सतह पर कमल का फूल खिला हो। क़ासिम दीनों दुनिया से बेख़बर प्याले पर प्याले चढ़ाता जाता था जैसे कोई डाकू लूट के माल पर टूटा हुआ हो। यहाँ तक कि उसकी आँखें लाल हो गयीं, गर्दन झुक गयी, पी-पीकर मदहोश हो गया। शहजादी की तरफ़ वसाना-भरी आँखों से ताकता हुआ बाहें खोले बढ़ा कि घड़ियाल ने चार बजाये और कूच के डंके की दिल को छेद देनेवाली आवाजें कान में आयीं। बाँहें खुली की खुली रह गयीं। लौंडियाँ उठ बैठी, शहजादी उठ खड़ी हुई और बदनसीब क़ासिम दिल की आरजुएँ लिये खेमे से बाहर निकला, जैसे तक़दीर के फ़ौलादी पँजे ने उसे ढकेलकर बाहर निकाल दिया हो। जब अपने खेमे में आया तो दिल आरजूओं से भरा हुआ था। कुछ देर के बाद आरजूओं ने हवस का रूप धरा और अब बाहर निकला तो दिल हरसतों से पामाल था, हवस का मकड़ी-जाल उसकी रूह के लिए लोहे की जंजीरें बना हुआ था।

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