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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


एक रोज़ वह शेर का पीछा करते-करते बहुत दूर निकल गया। धूप सख्त थी, भूख और प्यास से जी बेताब हुआ, मगर वहाँ न कोई मेवे का दरख्त नज़र आया न कोई बहता हुआ पानी का सोता जिससे भूख और प्यास की आग बुझाता। हैरान और परीशान खड़ा था कि सामने से एक चाँद जैसी सुन्दर युवती हाथ में बर्छी लिये और बिजली की तरह तेज़ घोड़े पर सवार आती हुई दिखाई दी। पसीने की मौती जैसी बूँदें उसके माथे पर झलक रही थीं और अम्बर की सुगन्ध में बसे हुए बाल दोनों कंधों पर एक सुहानी बेतकल्लुफ़ी से बिकरे हुए थे। दोनों की निगाहें चार हुईं और मसऊद का दिल हाथ से जाता रहा। उस ग़रीब ने आज तक दुनिया को जला डालने वाला ऐसा हुस्न न देखा था, उसके ऊपर एक सकता-सा छा गया। यह जवान औरत उस जंगल में मलिका शेर अफ़गान के नाम से मशहूर थी।

मलिका ने मसऊद को देखकर घोड़े की बाग खींच ली और गर्म लहजे में बोली—क्या तू वही नौजवान है, जो मेरे इलाके के शेरों का शिकार किया करता है? बतला तेरी इस गुस्ताखी की क्या सजा दूँ?

यह सुनते ही मसऊद की आँखें लाल हो गयीं और बरबस हाथ तलवार की मूठ पर जा पहुँचा मगर ज़ब्त करके बोला—इस सवाल का जवाब मैं खूब देता, अगर आपके बजाये यह किसी दिलेर मर्द की जबान से निकलता!

इन शब्दों ने मलिका के गुस्से की आग को और भी भड़का दिया। उसने घोड़े को चमकाया और बर्छी उछालती सर पर आ पहुँची और वार पर वार करने शुरू किये। मसऊद के हाथ पाँव बेहद थकान से चूर हो रहे थे और मलिका शेर अफ़गान बर्छी चलाने की कला में बेजोड़ थी। उसने चरके पर चरके लगाये यहाँ तक कि मसऊद घायल होकर घोड़े से गिर पड़ा। उसने अब तक मलिका के वारों को काटने के सिवाय खुद एक हाथ भी न चलाया था।

तब मलिका घोड़े से कूदी और अपना रुमाल फाड़-फाड़कर मसऊद के ज़ख्म बाँधने लगी। ऐसा दिलेर और ग़ैरतमन्द जवाँमर्द उसकी नज़र से आज तक न गुज़रा था। वह उसे बहुत आराम से उठवाकर अपने खेमे में लायी और पूरे दो हफ़्ते तक उसकी परिचर्या में लगी रही यहाँ तक कि घाव भर गया और मसऊद का चेहरा पूरनमासी के चाँद की तरह चमकने लगा। मगर हसरत यह थी कि अब मलिका ने उसके पास आना-जाना छोड़ दिया।

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