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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


सुहाग की सुहानी रात थी। दस बज गये थे। खुले हुए हवादार सहन में चाँदनी छिटकी हुई थी, वह चाँदनी जिसमें नशा है। आरजू है और खिंचाव है। गमलों में खिले हुए गुलाब और चम्मा के फूल चाँद की सुनहरी रोशनी में ज़्यादा गम्भीर और खामोश नज़र आते थे। मगनदास इन्दिरा से मिलने के लिए चला। उसके दिल में लालसाएँ जरूर थीं मगर एक पीड़ा भी थी। दर्शन की उत्कण्ठा थी मगर प्यास से खाली। मुहब्बत नहीं, प्राणों का खिंचाव था जो उसे खींचे लिए जाता था। उसके दिल में बैठी हुई रम्भा शायद बार-बार बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी। इसीलिए दिल में धड़कन हो रही थी। वह सोने के कमरे के दरवाजे पर पहुँचा। रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था। उसने पर्दा उठा दिया। अन्दर एक औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी। हाथ में चन्द ख़ूबसूरत चूड़ियों के सिवा उसके बदन पर एक ज़ेवर भी न था। ज्योंही पर्दा उठा और मगनदास ने अन्दर क़दम रक्खा, वह मुस्कराती हुई उसकी तरफ़ बढी। मगनदास ने उसे देखा और चकित होकर बोला। ‘‘रम्भा!’’ और दोनों प्रेमावेश से लिपट गये। दिल में बैठी हुई रम्भा बाहर निकल आई थी।

साल भर गुज़रने के बाद एक दिन इन्दिरा ने अपने पति से कहा। क्या रम्भा को बिलकुल भूल गये? कैसे बेवफा हो! कुछ याद है, उसने चलते वक़्त तुमसे क्या विनती की थी?

मगनदास ने कहा—ख़ूब याद है। वह आवाज़ भी कानों में गूँज रही है। मैं रम्भा को भोली-भाली लड़की समझता था। यह नहीं जानता था कि यह त्रिया-चरित्र का जादू है। मैं अपनी रम्भा को अब भी इन्दिरा से ज़्यादा प्यार करता हूँ। तुम्हें डाह तो नहीं होती?

इन्दिरा ने हंसकर जवाब दिया—डाह क्यों हो। तुम्हारी रम्भा है तो क्या मेरा मगनसिंह नहीं है। मैं अब भी उस पर मरती हूँ।

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