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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

मिलाप

लाला ज्ञानचन्द बैठे हुए हिसाब-किताब जाँच रहे थे कि उनके सुपुत्र बाबू नानकचन्द आये और बोले—दादा, अब यहाँ पड़े-पड़े जी उकता गया, आपकी आज्ञा हो तो मैं सैर को निकल जाऊँ। दो-एक महीने में लौट आऊँगा।

नानकचन्द बहुत सुशील और सुन्दर नवयुवक था। रंग पीला, आँखों के गिर्द हलक़े, कंधे झुके हुए। ज्ञानचन्द ने उसकी तरफ़ तीखी निगाह से देखा और व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोले—क्यों क्या यहाँ तुम्हारे लिए कुछ कम दिलचस्पियाँ हैं?

ज्ञानचन्द ने बेटे को सीधे रास्ते पर लाने की बहुत कोशिश की थी, मगर सफल न हुए। उनकी डाँट-फटकार और समझाना-बुझाना बिलकुल बेकार हुआ। उसकी संगति अच्छी न थी। पीने-पिलाने और राग-रंग में डूबा रहता था। उन्हें यह नया प्रस्ताव क्यों पसन्द आने लगा, लेकिन नानकचन्द उनके स्वभाव से परिचित था। बेधड़क बोला—अब यहाँ जी नहीं लगता। कश्मीर की बहुत तारीफ़ सुनी है, अब वहीं जाने की सोचता हूँ।

ज्ञानचन्द—बेहतर है, तशरीफ ले जाइए।

नानकचन्द—(हँसकर) रुपये तो दिलवाइए। इस वक़्त पाँच सौ रुपये की सख़्त जरूरत है।

ज्ञानचन्द—ऐसी फ़िजूल बातों का मुझसे ज़िक्र न किया करो, मैं तुमको बार-बार समझा चुका।

नानकचन्द ने हठ करना शुरू किया और बूढ़े लाला इनकार करते रहे, यहाँ तक कि नानकचन्द झुँझलाकर बोला—अच्छा कुछ मत दीजिए, मैं यों ही चला जाऊँगा।

ज्ञानचन्द ने कलेजा मजबूत करके कहा—बेशक, तुम ऐसे ही हिम्मतवर हो। वहाँ भी तुम्हारे भाई-बन्द बैठे हुए हैं न!

नानकचन्द—मुझे किसी की परवाह नहीं। आपका रुपया आपको मुबारक रहे।

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